Monday, January 27, 2014

जैन समाज को अल्पसंख्यक घोषित करना- एक सुनियोजित षडयंत्र



भारत कि सरकार द्वारा चुनावी वर्ष में जैन मत मानने वालो को अल्पसंख्यक घोषित कर उनके वोट लुभाने का प्रयास किया गया हैं। यह निर्णय एक सोची समझी रणनीति के तहत लिया गया हैं जिसके दूरगामी ...परिणामों पर विचार करने कि आवश्यकता हैं। मूल रूप से जैन समाज व्यापारी वर्ग से सम्बंधित हैं जिसकी आर्थिक स्थिति मेरे विचार से देश में सबसे समृद्ध हैं। सरकार द्वारा अल्पसंख्यक होने के प्रस्ताव को स्वीकार करने के क्या परिणाम निकल सकते हैं।इस विष य पर विचार करने कि आवश्यकता हैं।
संविधान के अनुसार भारत देश में किसी विशेष समुदाय, किसी विशेष विचारधारा को मानने वाले जिनकी संख्या कम हैं, जिन्हे संरक्षण कि आवश्यकता हैं वो अल्पसंख्यक हैं। इस परिभाषा के अनुरूप केवल पारसी मत को मानने वालो को अल्पसंख्यक का दर्जा देने कि आवश्यकता हैं। तर्क अनुसार समाज में मुर्ख और अज्ञानी अधिक हैं, समझदार और ज्ञानी व्यक्ति कम हैं इसलिए बुद्धिमान भी अल्पसंख्यक हुए। कश्मीर,पूर्वोत्तर के राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं इसलिए हिंदुओं को वहाँ पर अल्पसंख्यक के लाभ मिलने चाहिए। सत्य यह हैं कि हिन्दू समाज में जाति-पाति के भेद से लेकर अनेक मत मतान्तर तक , अनेक पंथ और अनेक गुरु से लेकर अनेक विचारधाराएँ विद्यमान हैं जिन पर पृथक पृथक कर आंकलन करे तो सभी अल्पसंख्यक हैं। इस आधार पर पूरे हिन्दू समाज को टुकड़ो टुकड़ो में अल्पसंख्यक घोषित किया जा सकता हैं। इसलिए किसी भी समूह के नेतृत्वकर्ता को सरकार द्वारा अपने आपको अल्पसंख्यक घोषित करवाने के लिये केवल समझोता करने कि आवश्यकता हैं और इस समझोते का आधार वोट बैंक कि राजनीती होना स्वाभाविक हैं।
इस देश में बहुसंख्यक कौन हैं केवल हिन्दू और अगर जैन समाज को अल्पसंख्यक बनना होगा तो सबसे पहले उसे अपने आपको हिन्दू कहना बंद करना होगा जैसे सिखों और बौद्धों से कहना आरम्भ भी कर दिया हैं। हिन्दू समाज में सामाजिक एकता कि कमी होने का सबसे बड़ा कारण उसकी आंतरिक संरचना हैं। भिन्न भिन्न मत मतान्तर, भिन्न भिन्न पूजा पद्यति, भिन्न भिन्न उपासक, भिन्न भिन्न विचारधारा होना हिन्दू समाज को सबसे सरल शिकार बनाता हैं और यही 1200 वर्षों से हो रही हमारी पराजय का मूलभुत कारण हैं। इस षडयंत्र के जनक हम अंग्रेजों को मान सकते हैं। अंग्रेजों ने स्वतंत्रता कि राह में हिंदुओं में एकता को स्थापित होते देख, अपनी सत्ता के विरुद्ध चुनौती बनते देख सबसे पहले सिखों को हिंदुओं से भिन्न घोषित किया जिससे उत्तर भारत में हिन्दू संगठन में दरार डाली जाये , उत्तर भारत और दक्षिण भारत के मध्य एकता में दरार डालने के लिये आर्यों को द्रविड़ों पर बाहर से आकर आक्रमण करने वाला, उन्हें गुलाम बनाने वाला, उन पर अत्याचार करने वाला दर्शाया गया, इसी प्रकार स्वर्ण हिंदुओं द्वारा दलित हिंदुओं पर जातिभेद अत्याचार को बंद करने के लिये किसी भी प्रकार का प्रयास अंग्रेजों से नहीं किया जिसके परिणाम स्वरुप लाखों दलित ईसाई, मुस्लमान, नास्तिक बन गये। अंतत वही हुआ जिसका डर था 1947 के विभाजन का मूलभुत कारण हिन्दू समाज में एकता और संगठन कि कमी होना था। सत्य यह हैं कि स्वतंत्र भारत में 80% से अधिक जनसँख्या होते हुए भी हिन्दू समाज कि सबसे अधिक दुर्गति का कारण हिन्दू संगठन कि कमी हैं और अल्पसंख्यक बनकर सरकारी संरक्षण प्राप्त करने कि हौड़ भी हिन्दू संगठन में सबसे बड़ी बाधा हैं। खेद हैं कि समृद्ध, शिक्षित, स्वाभिमानी होते हुए भी जैन समाज सरकार के सुनियोजित षडयंत्र का शिकार बनकर अपनी ही जड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने जा रहा हैं। यह प्रयास अंग्रेजों कि फुट डालो और राज करो कि निति का अनुसरण मात्र हैं।
कांग्रेस द्वारा जैन समाज को ही अल्पसंख्यक बनाने का विचार क्यूँ किया गया हैं। यह भी सोचने का कारण हैं। जैन समाज मूलरूप से दान देने वाला समाज हैं और हिन्दू समाज में समाज सुधार, जन सेवा, शिक्षा एवं चिकित्सा सेवा आदि के अनेक प्रकल्प इसी दान से चलते हैं। यह दान केवल जैन समाज ही नहीं अपितु समग्र हिन्दू समाज के हितार्थ व्यय होता हैं। इस सेवा के कारण गरीब एवं अशिक्षित हिन्दू को सहारा मिलता हैं जिससे वह ईसाई संगठनों द्वारा दिये जाने वाले लोभ, प्रलोभन आदि का शिकार नहीं बनता। अल्पसंख्यक बनने पर सामाजिक सेवा का दायरा समग्र हिन्दू समाज से बदलकर केवल जैन समाज तक सिमित हो जायेगा क्यूंकि अल्पसंख्यक मानसिकता धीरे धीरे व्यक्ति को विचारों को ऐसा प्रदूषित कर देती हैं कि वह के हिन्दू जाति दूरगामी हितों को त्याग कर केवल अल्पसंख्यक हितों पर ध्यान लगाने कि सोचने लगता हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिन्दू महासभा, सेवा भारती आदि अनेक राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने वाली संस्थाओं में जैन समाज से सम्बंधित अनेक पदाधिकारी एवं दानदाता हैं। अल्पसंख्यक बनने पर उनका चिंतन हिन्दू समाज और देश के लिए समर्पित होगा अथवा जैन समाज कि प्रगति कि लिए समर्पित होगा। यह समय उनके विचारने का हैं। पाठक स्वयं समझे कि मेरा ईशारा किस और हैं।
अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त होने पर जैन समाज क्यूंकि सरकारी संरक्षण को प्राप्त करने वाला समाज बन जायेगा इससे वह आर्थिक लाभ तो प्राप्त कर लेगा परन्तु उसकी वह प्रतिरोधक क्षमता समाप्त हो जायेगी जो संगठित होने पर हासिल होती हैं। आज हमारे देश के समक्ष इस्लामिक आतंकवाद, लव जिहाद, धर्मांध मतान्धता, लोभ-प्रलोभन से धर्म परिवर्तन, वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर धार्मिक मूल्यों का पतन आदि अनेक चुनौतियाँ हैं जिनका प्रतिरोध केवल और केवल संगठित होकर किया जा सकता हैं। ऐसे में भाई भाई के मध्य अल्पसंख्यक का भेद बनाकर मतभेद पैदा करना एक सोची समझी साजिश हैं। बचपन से हम एक कहानी सुनते आये हैं कि एक तिनके को अलग अलग कर कोई भी आसानी से तोड़ सकता हैं जबकि उन्हीं तिनकों को एक साथ तोड़ना किसी के भी बस कि बात नहीं हैं। इसी सिद्धांत को न समझने कि गलती हम शताब्दियों से करते आ रहे हैं और अब भी उसी का अनुसरण करने जा रहे हैं।
जैन समाज मुख्य रूप से वैश्य वर्ग से सम्बंधित हैं जिसका मूल कार्य व्यापार आदि हैं। ऐसे समाज में धन उपार्जन करने कि तो भरपूर क्षमता हैं मगर बाहुबल से धर्म रक्षा करने का अर्थात क्षत्रिय धर्म अभाव हैं। सामाजिक जीवन में चतुर्वर्ण व्यवस्था का तालमेल आवश्यक होता हैं। सभी अपने अपने कर्त्तव्यों का पालन करे ऐसी आवश्यकता होती हैं। 1921 के केरल के मोपला दंगो का एक उदहारण में यहाँ पर देना चाहता हू। जातिवाद के विष वृक्ष को सींचते हुए वहाँ के धनी और स्वर्ण हिंदुओं ने निर्धन एवं पिछड़ी जातियों से सम्बन्ध रखने वालो का अपनी बस्तियों में प्रतिबन्ध लगा दिया था। न तो कोई भी स्वर्ण दलितों कि बस्तियों में जाता था और न ही कोई भी दलित स्वर्णों कि बस्तियों में जाता था। जब मुस्लिम दंगाइयों ने दलितो कि बस्तियों पर हमला किया तब कोई भी स्वर्ण जातिभेद के चलते उनकी सहायता करने नहीं गया और इसी प्रकार जब दंगाइयों ने स्वर्णों कि बस्ती पर हमला किया तब प्रतिबन्ध के कारण कोई भी दलित उनकी रक्षा करने नहीं आया। इस प्रकार संख्या, धन, बल में अधिक होते हुए भी हिंदुओं कि व्यापक हानि हुई। मेरा इस उदहारण को यहाँ पर प्रस्तुत करने का मूल उद्देश्य यही हैं कि अल्पसंख्यक बनने के चक्कर में हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग कहलाने वाले जैन समाज में और हिन्दू समाज में दूरियाँ बनने का खतरा हैं जिसका अंतिम परिणाम केवल और केवल हानि हैं।

जैन समाज से सम्बंधित बुद्धिजीवी वर्ग के लिए यह एक चिंतन का समय हैं कि कुछ तुच्छ से लाभों के लिए वह अपने देशभक्त और हिन्दू समाज का अभिन्न अंग होने के विशेष गुण का परित्याग कर अपने आपको पृथक दिखाने कि हौड़ का भाग बनेगे अथवा हिन्दू संगठन को और शक्तिशाली बनायेगे। पाठक विचार करे कि कल को हिन्दू समाज के अनेक मत जैसे निरंकारी, ब्रह्मकुमारी, राधा स्वामी आदि सभी अल्पसंख्यक बनने कि हौड़ में सरकार के हाथों कि कठपुतली बनने लगे तो हिन्दू समाज का क्या होगा?


डॉ विवेक आर्य

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