Wednesday, September 16, 2015

ईश्वर को कहां खोजे?


ईश्वर को कहां खोजे?

एक प्रसिद्द संत थे। उनके सदाचारी जीवन और आचरण से सामान्य जन अत्यंत प्रभावित होते और उनके सत्संग से अनेक सांसारिक प्राणियों को प्रेरणा मिलती। सृष्टि का अटल नियम है। जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु भी होगी। वृद्ध होने पर संत जी का भी अंतिम समय आ गया। उन्हें मृत शैया पर देखकर उनके भक्त विलाप करने लगे। उन्होंने विलाप करते हुए शिष्यों को अंदर बुलाकर उनसे रोने का कारण पूछा। शिष्य बोले आप नहीं रहेंगे तो हमें ज्ञान का प्रकाश कौन दिखलायेगा। संत जी ने उत्तर दिया, " प्यारे शिष्यों प्रकाश तो आपके भीतर ही हैं। उसे केवल खोजने की आवश्यकता हैं। जो अज्ञानी है वे उसे संसार में तीर्थों, नदियों, मंदिरों, मस्जिदों आदि में खोजते हैं। अंत में वे सभी निराश होते है। इसके विपरीत मन, वाणी और कर्म से एकनिष्ठ होकर निरंतर तप और साधना करने वाले का अन्तकरण दीप्त हो उठता है। इसलिए ज्ञान चाहते हो तो ज्ञान देने वाले को अपने भीतर ही खोजो। वह परमात्मा हमारे अंदर जीवात्मा में ही विराजमान हैं। केवल उसे खोजने का पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है।

वेद में इस सुन्दर सन्देश को हमारे शरीर के अलंकृत वर्णन के माध्यम से बताया गया है। अथर्ववेद के 10/2/31 मंत्र में इस शरीर को 8 चक्रों से रक्षा करने वाला (यम, नियम से समाधी तक) और 9 द्वार (दो आँख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक मूत्र और एक गुदा) से आवागमन करने वाला कहा गया हैं। इस शरीर के भीतर सुवर्णमय कोष में अनेक बलों से युक्त तीन प्रकार की गति (ज्ञान, कर्म और उपासना ) करने वाली चेतन आत्मा हैं। इस जीवात्मा के भीतर और बाहर परमात्मा है और उसी परमात्मा को योगी जन साक्षात करते है। वेद दीर्घ जीवन प्राप्त करके सुखपूर्वक रहने की प्रेरणा देते हैं। वेद शरीर के माध्यम से अभुय्दय (लोक व्यवहार) एवं नि:श्रेयस (परलौकिक सुख) की प्राप्ति के लिए अंतर्मन में  स्थित ईश्वर का ध्यान करने की प्रेरणा देते है।

डॉ विवेक आर्य

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