Monday, August 31, 2015

औरंगज़ेब रोड के नाम परिवर्तन को लेकर रुदाली गान




औरंगज़ेब रोड के नाम परिवर्तन को लेकर रुदाली गान

जैसा की अपेक्षित था वैसा ही हुआ।  औरंगज़ेब के नाम पर सड़क के नाम का परिवर्तन कर रुदाली गान प्रारम्भ हो गया हैं। मुसलमान, वामपंथी, सिविल सोसाइटी के आदर्श एक्टिविस्ट, छदम इतिहासकार, पेज थ्री के मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के पेट में सबसे अधिक मरोड़ हो रही हैं। कोई औरंगज़ेब को न्यायप्रिय शासक, कोई जिन्दा पीर, तो कोई महान विजेता बताता है। औरंगज़ेब के जीवन के कुछ पहलुओं से आपको परिचित करवाना हमारा दायित्व हैं। क्यूंकि असत्य को बढ़ा चढ़ा कर प्रचारित करना और सत्य को छिपाना "बौद्धिक जिहाद" कहलाता हैं। इस लेख के माध्यम से औरंगज़ेब के जीवन के कुछ अनसुने मगर महत्वपूर्ण पहलुओं से हम आपको अवगत करवाएंगे।

1. औरंगज़ेब के जीवन में उसकी सनक ने मुग़ल सल्तनत  बर्बाद कर दिया। करीब 20 वर्षों तक दक्कन में चले युद्ध ने सरकारी खजाना समाप्त कर दिया, उसके सभी सरदार या तो बुड्ढे हो गए या मर गए। मगर विजय श्री नहीं दिखी। अपने उत्कर्ष से मुग़ल सल्तनत जमीन पर आ गिरी और ताश के पत्तों के समान ढह गई। यह औरंगज़ेब की गलती के कारण हुआ।
2. औरंगज़ेब ने तख़्त के लिए अपने तीन भाइयों दारा शुको, शुजा और मुराद को मारा था। अपने बुड्ढे बाप को आगरा के किले में एक अँधेरी कोठरी में कैद कर दिया था। उस कोठरी में एक छोटी से खिड़की से शाहजहाँ ताजमहल को निहार कर अपने दिल की कसक पूरी करता था। शाहजहाँ को पुरे दिन में एक घड़ा पानी भर मिलता था। जेठ की दोपहरी में कंपकपाते बूढ़े हाथों से पानी लेते समय वह मटका टूट गया। शाहजहाँ ने दूसरे मटके की मांग करी तो हवलदार ने यह कहकर मना कर दिया की बादशाह का हुकुम नहीं हैं। तब पूर्व शंहशाह के मुख से निकला। हे अत्याचारी तुझसे भले तो हिन्दू हैं जो मरने के पश्चात भी अपने पूर्वजों को श्राद्ध के नाम पर भोजन करवाते है। तू तो ऐसा निराधम है जो अपने जिन्दा बाप को भूखा-प्यासा मार रहा हैं।
3. औरंगज़ेब ने अपने तीनों भाइयों को निर्दयता से मारा था। उसे सपने में उनकी स्मृतियाँ तंग करती रही। वह इतना शकी हो गया की अपने खुद के पुत्रों को कभी अपने समीप नहीं आने दिया। उन्हें सदा डांटता डपटता रहता था।  क्यूंकि उसे लगता था की वे गद्दी के लिए उसे ठीक वैसे न मार दे जैसा उसने अपने सगो के साथ किया था। उसकी इस नीति के चलते उसके बेटे उसके जीवनकाल में ही बुड्ढे हो गए मगर राजनीती का एक पाठ भी न सीख सके। यही कारण था की उसके मरने के बाद वे सभी राजकाज में असक्षम सिद्ध हुए। मुगलिया सल्तनत का दिवाला निकल गया। उसी के चिरागों ने उसी के महल में आग लगा दी।
4. औरंगज़ेब ने अपने पूर्वजों की राजपूतों से दोस्ती की नीति को तोड़ दिया। वह सदा राजपूत सरदारों को काफिर और इस्लाम का दुश्मन समझता। इस नीति के चलते राजपूत सरदार उसकी ओर से किसी भी युद्ध में दिलोजान से नहीं लड़ते थे। मुस्लमान सरदारों को इस्लाम की दुहाई देकर औरंगज़ेब भेजता।मगर शराब और शबाब में गले तक डूबें हुए सरदार अपने तम्बुओं में पड़े राजकोष के पैसे बर्बाद करते रहे। अंत में परिणाम वही दाक के तीन पात। मुग़ल साम्राज्य युद्ध पर युद्ध हारता चला गया। प्रान्त प्रान्त में अनेक सरदार उठ खड़े हुए। महाराष्ट्र में वीर शिवाजी, बुंदेलखंड में वीर छत्रसाल, पंजाब में सिख गुरु, राजपुताना में दुर्गादास राठोड़ आदि उठ खड़े हुए। इस प्रतिरोध ने मुग़ल साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा दी। अपने साम्राज्य के हर कौने से उठे प्रतिरोध को औरंगज़ेब न संभाल सका।
5. औरंगज़ेब ने गैर मुसलमानों से लेकर मुसलमानों पर अनेक अत्याचार किये। उसने अपनी सुन्नी फिरकापरस्ती के चलते मुहर्रम के जुलुस पर पाबन्दी लगा दी, पारसियों के नववर्ष त्यौहार को बंद कर दिया , दरबार में संगीत पर पाबन्दी लगा दी, हिन्दुओं पर तीर्थ यात्रा पर जजिया कर लगा दिया, यहाँ तक की साधु-फकीरों तक को नहीं छोड़ा। औरंगज़ेब के इस फरमान से आहत होकर वीर शिवाजी ने औरंगज़ेब को पत्र लिख कर चुनौती दी थी कि अगर हिम्मत हो तो उनसे जज़िया वसूल कर दिखाये। औरंगज़ेब ने होली पर प्रतिबन्ध लगाकर, मंदिरों में गोहत्या करवाकर, अनेक मंदिरों को तुड़वा कर अपने आपको "आलमगीर" बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। काशी का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवराय मंदिर औरंगज़ेब के हुकुम से नष्ट कर उनके स्थान पर मस्जिद बना दी गई। मगर उसका परिणाम वही निकला जो हर अत्याचारी का निकलता हैं। बर्बादी।

औरंगज़ेब को उसके कुकर्मों, उसके बाप के शाप, उसके भाइयों की हाय, हिन्दुओं के प्रति वैमनस्य की भावना और मज़हबी उन्माद ने बर्बाद कर दिया। ऐसे अत्याचारी के नाम से दिल्ली में सड़क का नाम होना बड़ी गलती थी। अब अगर यह गलती सुधर रही है तो इसे अवश्य सुधारना चाहिये।  एक आदर्श, राष्ट्रवादी, वैज्ञानिक, महान व्यक्तित्व के धनी डॉ अब्दुल कलाम के नाम पर सड़क के नामकरण में छदम जमात को परेशानी हो रही हैं। एक अरब हिन्दुओं के देश में जहाँ पर हिन्दुओं की जनसंख्या 2011 के आकड़ों के अनुसार 79% के लगभग हैं। मगर एकता के अभाव के चलते मुट्ठी भर लोग हमसे ज्यादती करने का प्रयास करते हैं।

हमें क्या करना है-

हिन्दुओं के मध्य एकता ऐसी होनी चाहिए की इसी सड़क का नाम वीर शिवाजी के नाम पर हो तो उसका प्रतिरोध करने का भी साहस किसी में न हो। यही इस लेख का मूल सन्देश है।

 औरंगज़ेब रोड की बारी अभी आई ही हैं।
 अकबर,फिरोजशाह,तुग़लक़ अभी बाकि हैं।।

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हमारी महान वैदिक संस्कृति और विचारधारा का एक तुच्छ सा प्रसंशक

डॉ विवेक आर्य
 
#TyrantAurangzeb

Thursday, August 27, 2015

जीवन में शांति प्राप्त करने का उपाय




 जीवन में शांति प्राप्त करने का उपाय

एक बार घूमते-घूमते कालिदास बाजार गये वहाँ एक महिला बैठी मिली उसके पास एक मटका था और कुछ प्यालियाँ पड़ी थी।

कालिदास जी ने उस महिला से पूछा : क्या बेच रही हो ?

महिला ने जवाब दिया : महाराज ! मैं पाप बेचती हूँ …

कालिदास ने आश्चर्यचकित होकर पूछा : पाप और मटके में ?

महिला बोली : हाँ महाराज मटके में पाप है

कालिदास : कौन-सा पाप है ?

महिला : आठ पाप इस मटके में है | मैं चिल्लाकर कहती हूँ की मैं पाप बेचती हूँ पाप और लोग पैसे देकर पाप ले जाते है

अब महाकवि कालिदास को और आश्चर्य हुआ : पैसे देकर लोग पाप ले जाते है ?

महिला : हाँ महाराज ! पैसे से खरीदकर लोग पाप ले जाते है

कालिदास : इस मटके में आठ पाप कौन-कौन से है ?

महिला : क्रोध, बुद्धिनाश, यश का नाश, स्त्री एवं बच्चों के साथ अत्याचार और अन्याय, चोरी, असत्य आदि दुराचार, पुण्य का नाश, और स्वास्थ्य का नाश।

ऐसे आठ प्रकार के पाप इस घड़े में है कालिदास को कौतुहल हुआ की यह तो बड़ी विचित्र बात है किसी भी शास्त्र में नहीं आया है की मटके में आठ प्रकार के पाप होते है।

वे बोले : आखिरकार इसमें क्या है ?

महिला : महाराज ! इसमें शराब है शराब

कालिदास महिला की कुशलता पर प्रसन्न होकर बोले

"तुझे धन्यवाद है ! शराब में आठ प्रकार के पाप है यह तू जानती है और “मैं पाप बेचती हूँ” ऐसा कहकर बेचती है
 फिर भी लोग ले जाते है धिक्कार है ऐसे लोगों को।"

मनुष्य को अपने जीवन में शांति प्राप्त करने के लिए मर्यादाओं का पालन और अमर्यादाओं से दूरी रखनी चाहिए। ऋग्वेद 10/5/6  में मनुष्य को सात अमर्यादायों के निषेध का निर्देश दिया गया हैं। इन सात अमर्यादाओं में से जो कोई एक का भी सेवन करता हैं, तो वह पापी हो जाता हैं। यह सात अमर्यादायें हैं- चोरी, व्यभिचार, ब्रह्म हत्या, गर्भपात, असत्य भाषण, बार बार बुरा कर्म करना और शराब पीना। आज संसार में भौतिक संसाधनों की बहुतायत होते हुए भी संसार में अत्यंत अशांति का वातावरण हैं। इसलिए मर्यादायों का पालन ही शांति प्राप्त करने का एकमात्र साधन हैं।

डॉ विवेक आर्य

 

Wednesday, August 26, 2015

आचरणहीन को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते




आचरणहीन को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।


प्राचीन काल की बात है। एक राजा था। बड़ा न्यायप्रिय एवं आचारवान। प्रजा उसके कार्यों से सदा सुखी रहती थी। राजा का एकमात्र पुत्र था जो कुसंग के कारण अनेक दोषों से युक्त हो गया। राजा को सदा अपने पुत्र की चिंता रहने लगी। राजा के समझाने पर भी कुछ परिणाम न निकला। एक दिन राजा के गुरु जी उनके राज्य में पधारे। राजा ने उनकी भरपूर सेवा शुश्रुता करी। गुरु जी ने राजा को चिंताग्रस्त देखकर कारण पूछा। राजा ने अपने पुत्र के दोषों से गुरु जी को अवगत करवाया। गुरु जी ने राजा से कहा कि अपने पुत्र को सांयकाल में मेरे पास भेज दीजिये। सांय को राजा का पुत्र गुरु जी से मिलने गया। सामान्य शिष्टाचार के पश्चात गुरु जी उसे अपने साथ एक उद्यान में भ्रमण हेतु ले गए। वहां पर भिन्न भिन्न प्रकार के सुन्दर सुन्दर पौधे लगे थे। गुरु जी ने राजकुमार को सबसे पहले एक छोटा पौधा उखाड़ने को कहा। राजकुमार ने थोड़े से श्रम से उसे उखाड़ दिया। अब गुरु जी ने राजकुमार को उससे बड़े पौधे को उखाड़ने को कहा। राजकुमार ने पहले से अधिक श्रम से उसे उखाड़ दिया। अब गुरु जी  ने एक विशाल वृक्ष को उखाड़ने को कहा। राजकुमार ने कहा इस वृक्ष को उखाड़ना उसके वश में नहीं हैं। गुरु जी ने राजकुमार से उसका कारण पूछा। राजकुमार ने कहा इस वृक्ष की जड़ बहुत गहरी है। इसलिए इसे उखाड़ना मेरे लिए संभव नहीं है। तब गुरु जी ने कहा,"पुत्र हमारे जीवन में बुरी आदतें भी इस वृक्ष के समान हैं। आरम्भ में यह छोटे से पौधे के समान होती हैं। इन्हें उखाड़ना अर्थात दूर करना सरल होता हैं। कुछ काल के पश्चात जिस प्रकार से पौधा वृक्ष बन जाता हैं, उसी प्रकार से हमारी बुरी वृतियां, बुरी आदतें भी दृढ़ हो जाती हैं। फिर उन्हें जीवन में से दूर करना असंभव हो जाता है। राजकुमार पर गुरूजी की बातों का व्यापक प्रभाव हुआ। राजकुमार ने तत्काल बुरी आदतों पर विराम लगा दिया और अपने आचरण को पवित्र कर दिया। राजकुमार आगे चलकर वह भी अपने पिता के समान न्यायप्रिय एवं आचारवान राजा सिद्ध हुआ।

 यजुर्वेद 30/3 में पवित्र आचरण के लिये मनुष्य बड़ी सुन्दर प्रार्थना ईश्वर से करता हैं। मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव युक्त ईश्वर, आप हमारे सब दुष्ट आचरण एवं दुखों को दूर कीजिये और जो कल्याणकारी धर्मयुक्त आचरण एवं सुख हैं, उसे अच्छी प्रकार से उत्पन्न कीजिये।
इस संसार में ईश्वर सबसे उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव वाला हैं। इसलिए अपने आचरण को सुधारने के लिए मनुष्य को ईश्वर से प्रेरणा लेनी चाहिए। इस मंत्र के माध्यम से ईश्वर की स्तुति,प्रार्थना और उपासना करते हुए आध्यात्मिक उन्नति कर जीवन को सफल बनाना चाहिए।

डॉ विवेक आर्य

Tuesday, August 25, 2015

गुणों का सैदेव आदर होना चाहिए



गुणों का सैदेव आदर होना चाहिए

एक बार की बात है किसी राज्य में एक राजा था जिसकी केवल एक टाँग और एक आँख थी। उस राज्य में सभी लोग खुशहाल थे क्यूंकि राजा बहुत बुद्धिमान और प्रतापी था।
एक बार राजा के विचार आया कि क्यों खुद की एक तस्वीर बनवायी जाये। फिर क्या था, देश विदेशों से चित्रकारों को बुलवाया गया और एक से एक बड़े चित्रकार राजा के दरबार में आये। राजा ने उन सभी से हाथ जोड़कर आग्रह किया कि वो उसकी एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनायें जो राजमहल में लगायी जाएगी।
सारे चित्रकार सोचने लगे कि राजा तो पहले से ही विकलांग है फिर उसकी तस्वीर को बहुत सुन्दर कैसे बनाया जा सकता है, ये तो संभव ही नहीं है और अगर तस्वीर सुन्दर नहीं बनी तो राजा गुस्सा होकर दंड देगा। यही सोचकर सारे चित्रकारों ने राजा की तस्वीर बनाने से मना कर दिया। तभी पीछे से एक चित्रकार ने अपना हाथ खड़ा किया और बोला कि मैं आपकी बहुत सुन्दर तस्वीर बनाऊँगा जो आपको जरूर पसंद आएगी।
फिर चित्रकार जल्दी से राजा की आज्ञा लेकर तस्वीर बनाने में जुट गया। काफी देर बाद उसने एक तस्वीर तैयार की जिसे देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सारे चित्रकारों ने अपने दातों तले उंगली दबा ली।
उस चित्रकार ने एक ऐसी तस्वीर बनायीं जिसमें राजा एक टाँग को मोड़कर जमीन पे बैठा है और एक आँख बंद करके अपने शिकार पे निशाना लगा रहा है। राजा ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ कि उस चित्रकार ने राजा की कमजोरियों को छिपा कर कितनी चतुराई से एक सुन्दर तस्वीर बनाई है। राजा ने उसे खूब इनाम दिया।
तो मित्रों, क्यों ना हम भी दूसरों की कमियों को छुपाएँ, उन्हें नजरअंदाज करें और अच्छाइयों पर ध्यान दें। आजकल देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की कमियाँ बहुत जल्दी ढूंढ लेते हैं चाहें हममें खुद में कितनी भी बुराइयाँ हों लेकिन हम हमेशा दूसरों की बुराइयों पर ही ध्यान देते हैं कि अमुक आदमी ऐसा है, वो वैसा है। सोचिये अगर हम भी उस चित्रकार की तरह दूसरों की कमियों पर पर्दा डालें उन्हें नजरअंदाज करें तो धीरे धीरे सारी दुनियाँ से बुराइयाँ ही खत्म हो जाएँगी और रह जाएँगी सिर्फ अच्छाइयाँ।
इस कहानी से ये भी शिक्षा मिलती है कि कैसे हमें नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचना चाहिए और किस तरह हमारी सकारात्मक सोच हमारी समस्यों को हल करती है।


ब्रह्मदेव वेदालंकार 

Monday, August 24, 2015

अकबर को वीर हिन्दू रमणी ने जब सबक सिखाया था



अकबर को वीर हिन्दू रमणी ने जब सबक सिखाया था

अकबर घोर विलासी, अय्याश बादशाह था। वह एक ओर हिन्दुओं को मायाजाल में फंसाने के लिए "दीने इलाही" के नाम पर माथे पर तिलक लगाकर अपने को सहिष्णु दिखाता था, दूसरी ओर सुन्दर हिन्दू युवतियों को अपनी यौनेच्छा का शिकार बनाने की जुगत में रहता था।

दिल्ली में वह "मीना बाजार" लगवाता था। उसमें आने वाली हिन्दू युवतियों पर निगाह रखता था। जिसे पसन्द करता था उसे बुलावा भेजता था।

डिंगल काव्य सुकवि बीकानेर के क्षत्रिय पृथ्वीराज उन दिनों दिल्ली में रहते थे। उनकी नवविवाहिता पत्नी किरण देवी परम धार्मिक, हिन्दुत्वाभिमानी, पत्नीव्रता नारी थी। वह सौन्दर्य की साकार प्रतिमा थी। उसने अकबर के मीना बाजार के बारे में तरह-तरह की बातें सुनीं। एक दिन वह वीरांगना कटार छिपाकर मीना बाजार जा पहुंची। धूर्त अकबर पास ही में एक परदे के पीछे बैठा हुआ आने-जाने वाली युवतियों को देख रहा था। अकबर की निगाह जैसे ही किरण देवी के सौन्दर्य पर पड़ी वह पागल हो उठा। अपनी सेविका आयशा को संकेत कर बोला "किसी भी तरह इस मृगनयनी को लेकर मेरे पास आओ मुंह मांगा इनाम मिलेगा।"

किरण देवी बाजार की एक हीरों की दुकान पर खड़ी कुछ देख रही थी। आयशा वहां पहुंची। धीरे से बोली-"इस दुकान पर साधारण हीरे ही मिलते हैं। चलो, मैं तुम्हें कोहिनूर हीरा दिखाऊंगी।" किरण देवी तो अवसर की तलाश में थी। आयशा के पीछे-पीछे चल दी। उसे एक कमरे में ले गई।

अचानक अकबर कमरे में आ पहुंचा। पलक झपकते ही किरण देवी सब कुछ समझ गई। बोली "ओह मैं आज दिल्ली के बादशाह के सामने खड़ी हूं।" अकबर ने मीठी मीठी बातें कर जैसे ही हिन्दू ललना का हाथ पकड़ना चाहा कि उसने सिंहनी का रूप धारण कर, उसकी टांग में ऐसी लात मारी कि वह जमीन पर आ पड़ा। किरण देवी ने अकबर की छाती पर अपना पैर रखा और कटार हाथ में लेकर दहाड़ पड़ी-"कामी आज मैं तुझे हिन्दू ललनाओं की आबरू लूटने का मजा चखाये देती हूं। तेरा पेट फाड़कर रक्तपान करूंगी।"

धूर्त अकबर पसीने से तरबतर हो उठा। हाथ जोड़कर बोला, "मुझे माफ करो, रानी। मैं भविष्य में कभी ऐसा अक्षम्य अपराध नहीं करूंगा।"

किरण देवी बोली-"बादशाह अकबर, यह ध्यान रखना कि हिन्दू नारी का सतीत्व खेलने की नहीं उसके सामने सिर झुकाने की बात है।"...

अकबर किरण देवी के चरणों में पड़ा थर-थर कांप रहा था। और मीना बाजार के नाटक पर सदा सदा के लिए पटाक्षेप पड़ गया था।

एक कवि ने उस स्थिति का चित्र इन शब्दों में खींचा है

सिंहनी-सी झपट, दपट चढ़ी छाती पर,
मानो शठ दानव पर दुर्गा तेजधारी है।
गर्जकर बोली दुष्ट! मीना के बाजार में मिस,
छीना अबलाओं का सतीत्व दुराचारी है।
अकबर! आज राजपूतानी से पाला पड़ा,
पाजी चालबाजी सब भूलती तिहारी है।
करले खुदा को याद भेजती यमालय को,
देख! यह प्यासी तेरे खून की कटारी है।


(देश विभाजन के पश्चात ऐसे प्रेरणादायक प्रसंगों को पाठ्यकर्म में इसलिए शामिल नहीं किया गया क्यूंकि इनसे सेक्युलर देश की छवि धूमिल हो जाती। जब हम ऐसे प्रसंगों को पाठ्यकर्म में शामिल करने का आग्रह करते हैं तो कुछ छदम लोग इसे शिक्षा का भगवाकरण बताते हैं। यह मेरे देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ पर इतिहास सत्य के आधार पर नहीं अपितु खुशामद के आधार पर लिखा जाता हैं। देश पर गर्व करने वाले हर देशभक्त को इस लेख को अवश्य शेयर करना चाहिये)


डॉ विवेक आर्य 

Sunday, August 23, 2015

जीवन की सार्थकता



जीवन की सार्थकता

एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने गुरु के दर्शन करने उनके आश्रम पहुंचे। वहां उन्होंने गुरु से कहा,'गुरु जी, मुझे कोई ऐसा प्रेरक वाक्य बताइए जो महामंत्र बनकर न केवल मेरा बल्कि मेरे उत्तराधिकारियों का भी मार्गदर्शन करता रहे।' गुरुजी ने उन्हें एक श्लोक लिखकर दिया जिसका आशय यह था-'मनुष्य को दिन व्यतीत हो जाने के बाद कुछ समय निकालकर यह चिंतन अवश्य करना चाहिए कि आज का मेरा पूरा दिन पशुवत गुजरा या सत्कर्म करते हुए बीता। क्योंकि बिना कार्य, समाजसेवा, परोपकार आदि के तो पशु भी अपना गुजारा प्रतिदिन करते हैं, जबकि मनुष्य का कर्त्तव्य तो अपने जीवन को सार्थक करना है।'

इस श्लोक का राजा विक्रमादित्य पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने इसे अपने सिंहासन पर अंकित करवा दिया। अब वह रोज रात को यह विचार करते कि उनका दिन अच्छे काम में बीता या नहीं। एक दिन अति व्यस्तता के कारण वह किसी की मदद अथवा परोपकार का कार्य नहीं कर पाए। रात को सोते समय दिन के कामों का स्मरण करने पर उन्हें याद आया कि आज उनके हाथ से कोई सद्कार्य नहीं हो पाया। वह बेचैन हो उठे। उन्होंने सोने की कोशिश की पर उन्हें नींद नहीं आई।

आखिरकार वह उठकर बाहर निकल गए। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक गरीब आदमी ठंड में सिकुड़ता हुआ पड़ा है। उन्होंने उसे अपना दुशाला ओढ़ाया और फिर राजमहल में लौट आए। अब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि आज का दिन अच्छा बीता। उन्होंने सोचा कि यदि प्रत्येक व्यक्ति नेक कार्य, सद्भावना व परोपकार को अपनी दिनचर्या में शामिल कर ले तो उसका जीवन अवश्य सार्थक हो जाएगा। यह सोचते हुए उन्हें नींद आ गई।

वेदों में परोपकार रूपी सत्कर्म करने की प्रेरणा अनेक मन्त्रों में उपदेश रूप में बताई गई हैं। यजुर्वेद 30/3 मंत्र में लिखा है - हे परमात्मा सबको अच्छे कामों के लिये प्रेरित करते हैं। ऐसी कृपा कीजिये की हमारी सब बुराइयाँ दूर हो जाये और जो कुछ हमारे लिये भद्र अर्थात सुख देने वाली हो उसकी प्राप्ति कराइये।
मनुष्य को परमात्मा से अच्छे कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त करने की प्रार्थना करनी चाहिए।


डॉ विवेक आर्य

Wednesday, August 19, 2015

एक ईश्वर अनेक नामों से जाने जाते है।



एक ईश्वर अनेक नामों से जाने जाते है।

मोहन नाम का एक व्यक्ति दूरबीन लेकर लोगों को तमाशा दिखाया करता था। एक दिन मोहन ने देखा कि एक स्थान पर दो व्यक्ति आपस में लड़ रहे थे। उसने उन्हें रोका और उनकी समस्या बताने को कहा। दोनों की समस्या भगवान को लेकर थी। एक ने कहा भगवान मंदिर में है, दूसरा बोला भगवान मस्जिद में है।

मोहन ने पहले व्यक्ति की आंखों के सामने दूरबीन रखी और पूछा-'कुछ दिख रहा है?' जवाब मिला- हां यह संसार दिख रहा है। हर पल जिस प्रकार से अनेकों मनुष्य-पशु आदि का जन्म हो रहा हैं तो उसी प्रकार से अनेकों मनुष्य-पशु आदि की मृत्यु भी हो रही हैं। यह सम्पूर्ण जीवन-मरण का चक्र ईश्वर द्वारा चलायमान हैं। सभी प्राणियों की आकृतियां, रंग, रूप आदि भिन्न भिन्न हैं।' अब  मोहन ने दूसरे से दूरबीन से ओर देखने को कहा। वह देखने लगा तो दूरबीन वाले ने उससे पूछा-'कुछ नजर आ रहा है?' दूसरे व्यक्ति ने कहा-'अरे वाह। मुझे तो पृथ्वी के सभी मंदिर, मस्जिद, चर्च, पगोडा और गुरुद्वारे दिखाई दे रहे हैं। उनमें कई इंसान बैठे हैं। वहां तरह-तरह के मनुष्य हैं और सब अपने जैसे तरह-तरह के भगवान बना रहे हैं।'

अब मोहन ने पूछा यह बताओ की भगवान मनुष्यों को बनाते हैं अथवा मनुष्य भगवान को बनाता हैं।

दोनों ने उत्तर दिया - मनुष्य को बनाने की शक्ति तो केवल और केवल भगवान में हैं। मनुष्य में यह सामर्थ्य कहां?
मोहन ने उत्तर दिया'' 'बस यही झगड़े की जड़ है। इस पृथ्वी पर इंसान अपने-अपने भगवान बना लेता है। लेकिन वह यह नहीं समझ पाता कि उसे बनाने वाला वह परमात्मा एक ही है।'

मोहन की यह सरल व बोधगम्य व्याख्या दोनों सुनने वालों के हृदय में उतर गई और उन्होंने आपस में भगवान को लेकर लड़ना बंद कर दिया। दोनों को यह विश्वास हो गया की भगवान के असंख्य गुण होने के कारण असंख्य नाम हैं। मगर भगवान तो केवल और केवल एक ही है।

   ऋग्वेद 1/164/46 में एक ईश्वर होने का महान सन्देश “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” अर्थात विद्वान /ज्ञानी लोग एक ही सत्यस्वरूप परमेश्वर को विविध गुणों को प्रकट करने के कारण इन्द्र, मित्र,वरुण आदि अनेक नामों से पुकारते हैं। परम ऐश्वर्य संपन्न होने से परमेश्वर को इन्द्र, सबका स्नेही होने से मित्र, सर्वश्रेष्ठ और अज्ञान व अन्धकार निवारक होने से वरुण, ज्ञान स्वरुप और सबका अग्रणी नेता होने से अग्नि, सबका नियामक होने से यम, आकाश,जीवादी में अन्तर्यामिन रूप में व्यापक होने से मातरिश्वा आदि नामों से उस एक की ही स्तुति करते हैं।

डॉ विवेक आर्य 

Monday, August 17, 2015

Islamic extremism and the freedom of expression



Islamic extremism and the freedom of expression


1857 struggle for independence is a remarkable chapter in Indian history as both Hindus as well as Muslims fought together for the independence of our country. This union ended in beginning of 20th century especially in post Khilafat movement era. This era witnessed multiple riots, looting, plundering, killing and insult to womanhood. The religious extremism reached its peak resulting in partition of the country in 1947. The literary circles of those days were also influenced by this extremism. Britishers adopted a policy of backbiting. They kept mum on destruction of Hindu property in riots and on another hand promoted Muslims to suppress Hindus. This was just another extension of divide and rule policy by the Britishers.

In 1920s Muslims targeted Hindus by publishing two books named “Krishna teri Gita Jalani Padegi” and “19vin sadi ka Maharishi”. The former book contained derogatory remarks on Lord Krishna while the latter on Swami Dayanand. Hindus were offended by this step of Muslims but the Aryasamaj which was most revolutionary movement of 19th century did not remain silent. Mahashya Rajpal published a book in 1924 named “Rangila Rasool” with author name as “Dudh ka Dudh,Pani ka Pani” as a counter answer to this mischief. Actually book was authored by Pt Chamupati Ji but due to expected resistance from Muslims he was assured by Rajpal ji that he will neither print nor inform anyone about the author of the book. Mahashya ji accepted the proposal of Chamupati ji and printed the book without name of original writer. Book was published and sold as a routine book.

Later Mahatma Gandhi noticed the book and penned an article demanding Muslims to oppose publication of such books. The article by Gandhi Ji caused wider resentment among Muslims and they started demonstration against the publisher. The matter went to lower court and Rajpal ji was jailed and fined for printing the book. Rajpal ji appealed in the High court. His case went under Kumwar Daleep Singh. Justice Singh found Rajpal ji as non-guilty. He heard the appeal on the grounds of criticism against the religious leaders . He considered that how immoral is the matter.The issue is not covered by S.153 of the Indian Penal Code. He let Rajpal ji free from all charges. Muslims encouraged by Gandhi ji went amok. They started agitations and widespread demonstrations against Rajpal Ji. The shop of Rajpal ji was attacked thrice. Two persons named Khuda bhaksh and Abdul Aziz attempted to kill Rajpal Ji but failed. Both of them were caught and imprisoned.

On April 6, 1929 Rajpal ji was attacked by an illiterate carpenter name Ilm-ud-din. He was stabbed in chest and died on spot. Killer was caught and handed over to police. Rajpal's body was cremated with all honors. His last rites witnessed thousands of Hindus who felt pride over his sacrifice for the sake of protection of Dharma. Rajpal ji joined the league of martyrs of Aryasamaj which included the legendary Pundit Lekhram and visionary Swami Sharddhananda. Hindus pledged to sacrifice their life but not to tolerate fundamentalism.

Ilm Din was kept in Mianwali jail. The case went to court and Muhammad Ali Jinnah was his defense lawyer. Jinnah fought Ilm Din's case on a special request from Allama Iqbal after charging hefty fees. Money was collected by Muslims all over the country on name of Islam to save the killer. Jinnah urged Ilm Din to enter a plea of not guilty and to say that he acted due to extreme provocation. The counter party exposed Ilm Din claim. He was asked how he got provoked as he was unable to read the book being illiterate. This proves that he was incited by others. (*It seems that Ilm Din was brain washed by some fanatics promising Virgins, Rivers of wine, Sweet Water and all sorts of pleasure in Jannat). The Session Court awarded Ilm Din the death penalty. Muslims lodged an appeal but it was also rejected. Ilm Din was executed on 31st October 1929.He was buried in Jail premises. Mass demonstrations broke out and the tension between the Hindu and Muslim communities became palpable. The Muslim inhabitants of Lahore wanted Ilm Din’s body to be buried in Lahore. Allama Iqbal campaigned for the body of Ilm din. At last the permission was given to exhume the body. It was exhumed and transported to Lahore. Muslims in huge number attended the funeral of the killer. Iqbal placed the body of Ilm Din into the grave.  The mindset of the mentor of Pakistan was exposed by his last declaration. He said “This uneducated young man has surpassed us, the educated ones." Iqbal was playing with the sentiments of Muslims. He nurtured them to oppose Hindus by poisoning their minds. Ilm Din was honored with the title of Gazi (One who is killer of Kafir or non-Muslim). The Muslims glorified the grave of Ilm Din as defender of Islam. Yearly celebrations were started in Lahore on his hanging Day. Visitors still visit his grave, even his desolate Home and his cell in Mianwali Jail. Post partition, even movies were released in Pakistan depicting Ilm Din as defender of Islam.



A question vexes my mind again and again.

Who killed Rajpal Ji?

Was it Ilm Din?

Answer is a big No.

Ilm Din was a puppet.

The killer of Rajpal ji is “Islamic mindset of intolerance”.




Swami Swatantranand ji describes this sick mentality in impressive words. He writes that “First Muslims incite Hindus by derogatory publication on their Gods. Hindus counters such maligning attempts by publishing Books. In-tolerating Muslims will go to court blaming Hindus? Defeat in court provokes Muslims to kill Hindus with daggers. ”


Rajpal Ji was defender of freedom of expression. He published the book on basis of authentic Hadith. Rajpal ji motive was not to hurt the sentiments of common Muslim man. His attempt was to counter the mindset of Fundamentalists. His aim was to remove ignorance. He was against those who think that they can hurt the feelings of anyone on name of  religion. The readers might be in confusion.

They might be thinking that why the work done by Rajpal ji is equivalent to freedom of expression while the work of others is equivalent to fundamentalism?



Answer is quite superlative.

I will go strongly with freedom of expression only if two criteria’s are fulfilled.

1. The motive of expression must be for the benefit of society.

2. The person expressing his view must be impartial and unbiased.

If the intention of the author is not impartial. Then it’s nothing more than fundamentalism. Such attempts will only create differences and divisiveness. Great Persons like Rajpal ji sacrificed their life for noble cause.

Let the freedom of expression help us in defending Truth and only Truth.


Dr Vivek Arya


Photo gallery



Amar Shahid Mahashaya Rajpal Ji

Mazar of Ilm Din in Lahore,Pakistan
Desolated House of Ilm Din in Mohallah Sirriyan-wala, Akbari gate, Lahore
Cell of Mianwali Jail where Ilam din was kept before Hanging

(Grave of Ilm Din in Lahore)



Ilm Din Original Photo






Iqbal patronizing Killer Ilm Din









You tube Video Link shows yearly celebrations of Grave of Ilm Din



Sunday, August 16, 2015

अश्लीलता पर शीर्षासन क्यों?



अश्लीलता पर शीर्षासन क्यों?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इंटरनेट पर दिखाई जाने वाली अश्लील वेबसाइटों के बारे में सरकार ने शुरू में बहुत ही अच्छा रवैया अपनाकर 857 अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन फिर उसने सिर्फ बच्चों की अश्लील वेबसाइटों पर अपने प्रतिबंध को सीमित कर दिया। सूचना एवं तकनीकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसकी घोषणा की। सरकार ने यह शीर्षासन क्यों किया?
सरकार ने यह शीर्षासन किया, अंग्रेजी अखबारों और चैनलों की हायतौबा के कारण! किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह अश्लीलता के समर्थकों का विरोध करे। इससे साफ जाहिर होता है कि स्वतंत्र भारत में भी दिमागी गुलामी की जड़ें कितनी गहरी और हरी हैं। आप यदि अंग्रेजी में कोई अनुचित और ऊटपटांग बात भी कहें, तो वह मान ली जाएगी। मुझे आश्चर्य है कि संसद और विधानसभाओं में भी किसी नेता ने इस मुद्‌दे को नहीं उठाया। देश में संस्कृति और नैतिकता का झंडा उठाने वाली संस्थाओं-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्यसमाज और गांधी-संस्थाओं की चुप्पी भी आश्चर्यजनक है। सारे साधु-संतों, मुल्ला-मौलवियों, ग्रंथियों और पादरियों का मौन भी चौकाने वाला है। शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि इन्हें पता ही न हो कि इंटरनेट पोर्नोग्राफी क्या होती है। यह तो इंदौर के वकील कमलेश वासवानी की हिम्मत है कि उन्होंने इस मामले को अदालत में लाकर अश्लील वेबसाइटों के माथे पर तलवार लटका दी है।
यदि जनता के दबाव के आगे कोई सरकार झुकती है तो इसे मैं अच्छा ही कहूंगा। इसका मतलब यही है कि सरकार तानाशाह नहीं है। भूमि-अधिग्रहण विधेयक पर भी सरकार ने लचीले रवैए का परिचय दिया है, लेकिन अश्लीलता के सवाल पर क्या सरकार यह कह सकती है कि वह लोकमत का सम्मान कर रही है? दस-बीस अंग्रेजी अखबारों में छपे लेखों और लगभग दर्जन भर चैनलों की हायतौबा को क्या 130 करोड़ लोगों की राय मान लिया जा सकता है? इसके पहले कि सरकार अपने सही और साहसिक कदम से पीछे हटती, उसे एक व्यापक सर्वेक्षण करवाना चाहिए था, सांसदों की एक विशेष जांच समिति बिठानी चाहिए थी, अपने मार्गदर्शक मंडल से सलाह करनी चाहिए थी। ऐसा किए बिना एकदम पल्टी खा जाना किस बात का सूचक है? एक तो इस बात का कि वह सोच-समझकर निर्णय नहीं लेती और जो निर्णय लेती है, उस पर टिकती नहीं है यानी उसका आत्म-विश्वास डगमगा रहा है। यदि मोदी सरकार का यह हाल है तो देशवासी अन्य सरकारों से क्या उम्मीद कर सकते हैं?
अब संघ स्वयंसेवकों की यह सरकार अपनी पीठ खुद ठोक रही है कि हमने वेबसाइट आॅपरेटरों को नया निर्देश दिया है कि वे बच्चों से संबंधित अश्लील वेबसाइटों को बंद कर दें। बेचारे आॅपरेटर परेशान हैं। वे कहते हैं कि कौन-सी वेबसाइट बाल-अश्लील है और कौन-सी वयस्क-अश्लील हैं, यह तय करना मुश्किल है। सिर्फ बाल-अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध को अदालत और सरकार दोनों ही उचित क्यों मानती हैं? उनका कहना है कि इसके लिए बच्चों को मजबूर किया जाता है। वह हिंसा है। लालच है। मैं पूछता हूं कि वयस्क वेबसाइटों पर जो होता है, वह क्या है? ये वयस्क वेबसाइटें क्या औरतों पर जुल्म नहीं करतीं?औरतों के साथ जितना वीभत्स और घृणित बर्ताव इन वेबसाइटों पर होता है,उसे अश्लील कहना भी बहुत कम करके कहना है। पुरुष भी स्वेच्छा या प्रसन्नता से नहीं, पैसों के लिए अपना ईमान बेचते हैं। उन सब स्त्री-पुरुषों की मजबूरी,क्या उन बच्चों की मजबूरी से कम है? हमारी सरकार के एटार्नी जनरल अदालत में खड़े होकर बाल-अश्लीलता के खिलाफ तो बोलते हैं, जो कि ठीक है, लेकिन महिला-अश्लीलता के विरुद्ध उनकी बोलती बंद क्यों है? यह बताइए कि इन चैनलों को देखने से आप बच्चों को कैसे रोकेंगे? इन गंदे चैनलों के लिए काम करने वाले बच्चों की संख्या कितनी होगी? कुछ सौ या कुछ हजार? लेकिन इन्हें देखने वाले बच्चों की संख्या करोड़ों में है। क्या आपको अपने इन बच्चों की भी कुछ परवाह है या नहीं? सारे अश्लील वेबसाइटों पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन पैसे की खदान है। यह पैसा सरकारों को भी बंटता है। सरकारें ऐसे वेबसाइटों को इसलिए भी चलाते रहना चाहती हैं कि जनता का ध्यान बंटा रहे। उसके दिमाग में बगावत के बीज पनप न सकें। रोमन साम्राज्य के शासकों ने अपनी जनता को भरमाने के लिए हिंसक मनोरंजन के कई साधन खड़े कर रखे थे। पश्चिम के भौतिकवादी राष्ट्रों ने अपनी जनता को अश्लीलता की लगभग असीम छूट इसीलिए दे रखी है कि वे लोग अपने में ही मगन रहें, लेकिन इसके भयावह दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। हिंसा और दुष्कर्म के जितने अपराधी अमेरिकी जेलों में बंद हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं हैं।
यह तर्क बहुत ही कमजोर है कि सरकार का काम लोगों के शयन-कक्षों में ताक-झांक करना नहीं है। लोग अपने शयन-कक्ष में जो करना चाहें, करें। इससे बढ़कर गैर-जिम्मेदाराना बात क्या हो सकती है? क्या अपने शयन-कक्ष में आप हत्या या आत्महत्या कर सकते हैं? क्या दुष्कर्म कर सकते हैं? क्या मादक-द्रव्यों का सेवन कर सकते हैं? ताक-झांक का सवाल ही तब उठेगा, जबकि आप गंदी वेबसाइटें छुप-छुपकर देख रहे हों। जब गंदी वेबसाइटों पर प्रतिबंध होगा तो कोई ताक-झांक करेगा ही क्यों? उसकी जरुरत ही नहीं होगी। हर शयन-कक्ष की अपनी पवित्रता होती है। वहां पति और पत्नी के अलावा किसका प्रवेश हो सकता है? यदि आप गंदी वेबसाइटों को जारी रखते हैं तो उनसे आपका चेतन और अचेतन इतने गहरे में प्रभावित होगा कि वह कमरों की दीवारें तोड़कर सर्वत्र फैल जाएगा। यह अश्लीलता मनोरंजक नहीं, मनोभंजक है। यही हमारे देश में दुष्कर्म और व्याभिचार को बढ़ा रही है। यदि यह अश्लीलता अच्छी चीज है तो इसे आप अपने बच्चों, बहनों और बेटियों के साथ मिलकर क्यों नहीं देखते?आपने सिनेमा पर सेंसर क्यों बिठा रखा है? आप लोगों को पशुओं की तरह सड़कों पर ऐसा करने की अनुमति क्यों नहीं देते? यह तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सर्वोच्च उपलब्धि होगी! अश्लील पुस्तकें तो बहुत कम लोग पढ़ पाते हैं। अश्लील वेबसाइटें तो करोड़ों लोग देखते हैं। आपको पहले किस पर प्रतिबंध लगाना चाहिए?
इन अश्लील वेबसाइटों की तुलना खजुराहो और कोणार्क की प्रतिमाओं तथा महर्षि वात्स्यायन के कामसूत्र से करना अपनी विकलांग बौद्धिकता का सबूत देना है। कामसूत्र काम को कला के स्तर पर पहुंचाता है। उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अंग बनाता है। वह काम का उदात्तीकरण करता है जबकि ये अश्लील वेबसाइटें काम को घृणित, फूहड़, यांत्रिक और विकृत बनाती हैं। काम के प्रति भारत का रवैया बहुत खुला हुआ है। वह वैसा नहीं है, जैसा कि अन्य देशों का है। उन संपन्न और शक्तिशाली देशों को अपनी दबी हुई काम-पिपासा अपने ढंग से शांत करने दीजिए। आप उनका अंधानुकरण क्यों करें?

कथनी और करनी का अंतर



कथनी और करनी का अंतर

बुल्लेशाह के नाम से पंजाब के प्रसिद्द संत थे। युवावस्था में उनका मन वैराग्यवान हो गया। मुसलमानों में ऊंच-नीच, जात-पात, छुआ-छूत के झगड़े देखकर उनका मन उचाट हो गया। बुल्लेशाह इस क्रूर व्यवहार के सर्वथा विरुद्ध थे। उन्होंने अपना अधिकांश समय प्रभु  भक्ति एवं उपदेश में लगाना आरम्भ कर दिया। उनका उपदेश ग्रहण करने मुसलमानों की छोटी जातियां भी आती थी। बुल्लेशाह का जन्म मुसलमानों में सबसे ऊँचा समझे जाने वाले सैय्यद जो हजरत मुहम्मद साहिब का कुल था, उसमें हुआ था। लोगों को  बुल्लेशाह की छोटी जाति वालों से नजदीकियां पसंद न थी। एक बार बुल्लेशाह के सम्बन्धियों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि वह नीच लोगों की संगत न करे। उन्होंने बुल्लेशाह से कहा की श्रेष्ठ सैय्यद कुल में पैदा होकर उनका नीचे लोगों से साथ सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।

बुल्लेशाह ने कहा- "क्या किया जाये? मैं तो इन्ही लोगों के साथ रहने को विवश हूँ जिन को आप नीच बता रहे हो। मैं तो इनमें कोई दोष नहीं देखता और तुम जिनको श्रेष्ठ लोग समझ रहे हो, जो नियमपूर्वक नमाज़ पढ़ते हैं, बात बात में इस्लाम और क़ुरान का नाम लेते हैं, जो फरिश्तों जैसी भाषा में बातें करते हैं, उनके तो दर्शन से भी मुझे डर लगता है। क्यूंकि उनके विचार और उनके कर्म सब प्रकार से निंदनीय हैं। वे केवल बात बनाते हैं।"

बुल्लेशाह ने इस वाक्या में कथनी और करनी के अंतर को व्यवहारिक रूप से स्पष्ट किया हैं। वेद भी परमात्मा के स्मरण के साथ श्रेष्ठ कर्म करने का सुन्दर सन्देश देते हैं। ऋग्वेद के 7/32/13 मंत्र में लिखा है कि हे मनुष्य तुम परमात्मा के लिए की जाने वाली श्रेष्ठ, सुन्दर, यथार्थ, उदारतसहित, नम्रताभावपूर्ण, प्रेम पूर्वक स्तुति को अपने धर्म कार्य में समर्पित कर दो। अर्थात आप जितने सुन्दर रूप से परमात्मा कि स्तुति करते है, उतने ही सुन्दर आपके कर्म होने चाहिए। क्यूंकि वेद कहते हैं, जिसके कर्म परमात्मा में स्थिर हो जाते हैं, उसी की आत्मा बंधनों से मुक्त हो जाती हैं।

आज संसार में अनेकों गुरु, ग्रन्थि, मौलवी और पादरी आदि ईश्वर का सन्देश देने में लगे हुए हैं। मगर संसार में चारों और दुःख, दरिद्रता, लालच, अभिमान, अत्याचार,शोषण आदि न केवल स्पष्ट दीखता हैं अपितु उसकी दिनों दिन वृद्धि भी हो रही हैं। इसका कारण उनकी कथनी और करनी में अंतर हैं। उनके उपदेश सुनने वालो के कर्मों में उनका प्रभाव न के बराबर होना हैं। जब तक मनुष्य ईश्वर को समर्पित कर क्रम नहीं करेगा तब तक दुखों के बंधन से छुट नहीं पायेगा।

डॉ विवेक आर्य 

Saturday, August 15, 2015

Revenge of Hindu sisters"Surya Devi & Piramal Devi" - The Brave princess of Sindh

Raja Dahir of Sindh



REVENGE OF HINDU SISTERS "SURYADEVI & PIRAMALDEVI" ~ THE PRINCESS OF SINDH!


Unknown story of Daughters of King Dahir:

         ‘For thousands of years no one even dared to look at Bharat with a view to conquer it. But in 711 AD there was an aggressive and deadly attack on Sindh province. At this time, Sindh was ruled by Dahir Raja. The king was killed. The Queen performed ‘Johar’ and ended her life. The palace was destroyed. The attackers were surely not braver than us. Maybe they had better weapons, but the terror which they created had no equal. Armed warriors entered the small towns and villages. Earlier battles were fought on the battlefield. Warriors fought against warriors. However these aggressive and cruel warriors killed innocent women, children and old people who were in their houses. They destroyed temples and the idols residing in the temples. They destroyed schools. They raped young women. The way they treated those who were their victims, was utterly cruel. That man can be so cruel was unprecedented and unknown to Bharatiya culture. This kind of demonic aggression left the entire society afraid and terrified. As a result the aggressors found literally no opposition.

In addition, since there was excessive adherence to the concept of non violence, even the army too was reluctant to fight. Sindh was defeated. Blood sucking, man-eating demons were dancing on the blood filled land and creating a ruckus.

In this way unfavourable anti-Hindu youth entered the western boundary of Bharat. In these adverse circumstances, our good qualities worked against us as they turned out to be our failings.’ – Prof. S. G. Shevde (Bharatiya Sanskruti, Page Nos. 35 & 36)

Salutation to daughters of King Dahir who avenged the insulting defeat of Sindh by killing Mohammad Bin Qasim !:

‘Finally the Hindu kingdom of Dahir was destroyed. He had two daughters, Suryadevi and Parimaladevi who were sent to Baghdad as a gift for the Khalif. Our culture is one which treats a woman as a mother and here was another culture, which sent girls to their Dharma Guru for appeasement and enjoyment, which was a disgrace to mankind ! But both daughters of Dahir were very brave. They gained the confidence of the Khalif and he began to trust them. As they were given as gifts to Khalif, they were unable to prevent physical violation of their bodies but just see what they did do! They sent a letter to Mohammad Bin Qasim’s generals bearing the stamp and signature of the Khalif. The letter contained an order – ‘Put Mohammad in a leather bag, seal the bag and send it here’. The order was from the Khalif. The generals followed the order word to word; they put Mohammad alive in a letter bag, sealed the bag and sent it to Baghdad on a ship. When the ship reached Baghdad after 10-12 days, Mohammad Bin Qasim’s corpse had decayed to such an extent that worms had begun to devour the corpse. The decaying smell was unbearable.

The Khalif investigated as to ‘Why was he sent to him like this?’ The two girls then told the Khalif, “We sent a letter bearing your signature and stamp. We have taken revenge on the demon who inflicted untold misery in our kingdom. We have done this. We feel proud of what we have done. We have fulfilled our national duty. We are ready to face any consequences for this action.”

An enraged Khalifa tied the hair of the two girls to the tails of horses and made the horses run throughout Baghdad. The girls were being kicked by the horses and their bodies were being stripped of its skin in the process. Their hair was being pulled and their heads were dashing against the knees of horses. Except for the bloodied heads, both bodies were stripped and cut into pieces and were being dropped on the road. But the two girls, who were proud of having avenged the insult to their kingdom, did not have a single tear in their eyes as they embraced martyrdom. 

(When Bharat gained independence, statues of these two girls should have been erected on the Sindh border.)’ 

– Prof. S. G. Shevde

Hindu Girls being sold in Slave Markets of Bagdad

Tuesday, August 11, 2015

सत्य के लिए श्रद्धा एवं असत्य के लिए अश्रद्धा पैदा करने वाला कौन हैं?



सत्य के लिए श्रद्धा एवं असत्य के लिए अश्रद्धा पैदा करने वाला कौन हैं?

कौरवों और पांडवों को शस्त्र शिक्षा देते समय एक दिन आचार्य द्रोण के मन में उनकी परीक्षा लेने का विचार आया। उन्होंने सोचा, क्यों न सबकी वैचारिक प्रगति और व्यवहारिक बुद्धि की परीक्षा ली जाए। दूसरे दिन आचार्य द्रोण ने राजकुमार दुर्योधन को अपने पास बुलाकर कहा-'वत्स, तुम समाज में अच्छे आदमी की परख करो और वैसा एक व्यक्ति खोजकर मेरे सामने उपस्थित करो।' दुर्योधन ने कहा-'जैसी आज्ञा।' और वह अच्छे आदमी की खोज में निकल पड़ा।

कुछ दिनों के बाद दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास आकर बोला-'गुरुजी, मैंने कई नगरों और गांवों का भ्रमण किया परंतु कहीं भी कोई अच्छा आदमी नहीं मिला। इस कारण मैं किसी को आपके पास नहीं ला सका।' इसके बाद आचार्य द्रोण ने राजकुमार युधिष्ठिर को अपने पास बुलाया और कहा-'बेटा, इस पूरी पृथ्वी पर कहीं से भी कोई बुरा आदमी खोज कर ला दो।' युधिष्ठिर ने कहा-'ठीक है, गुरुदेव। मैं कोशिश करता हूं।' इतना कहकर वह बुरे आदमी की खोज में निकल पड़े।

काफी दिनों बाद युधिष्ठिर आचार्य द्रोण के पास आए। आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर से पूछा- 'किसी बुरे आदमी को साथ लाए?' युधिष्ठिर ने कहा-'गुरुदेव, मैंने सब जगह बुरे आदमी की खोज की, पर मुझे कोई भी बुरा आदमी नहीं मिला। इस कारण मैं खाली हाथ लौट आया।' सभी शिष्यों ने पूछा-'गुरुवर, ऐसा क्यों हुआ कि दुर्योधन को कोई अच्छा आदमी नहीं मिला और युधिष्ठिर किसी बुरे व्यक्ति को नहीं खोज सके?'

आचार्य द्रोण बोले-'जो व्यक्ति जैसा होता है, उसे सारे लोग वैसे ही दिखाई पड़ते हैं। इसलिए दुर्योधन को कोई अच्छा व्यक्ति नहीं दिखा और युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी नहीं मिल सका।'

संसार में सब स्थान पर अच्छाई और बुराई हैं। जहाँ सत्य है वहां अच्छाई है, जहाँ असत्य है वहां बुराई हैं। वेद भगवान इसी संदेश को बड़े मर्मिक रूप से समझाते है। यजुर्वेद 19/77 में लिखा है-  प्रजापति रूपी ईश्वर ने सत्य-असत्य को जिस प्रकार से जगत में पृथक कर रखा हैं, उसी प्रकार से हमारे भीतर भी पृथक कर रखा हैं।  ईश्वर ने हमारे अंतकरण में अच्छाई और बुराई अर्थात सत्य और असत्य में भेद करने के लिए श्रद्धा और अश्रद्धा रूपी शक्ति प्रदान करी हैं। ईश्वर सत्य में श्रद्धा को उपजाते है एवं असत्य में अश्रद्धा को उदभूत करते हैं। अब जो प्रजापति की शरण में हैं वह सत्य और असत्य में भेद करने में सक्षम होगा। जो मलिन हृदय वाला होगा उससे बड़ा दुर्भाग्यशाली कोई नहीं होगा।

दुर्योधन हृदय की मलिनता एवं अश्रद्धा के चलते संसार में अच्छाई को न खोज पाया जबकि युधिष्ठिर अंतकरण में अच्छाई और श्रद्धा के चलते संसार में बुराई को न खोज पाया। भाइयों! तनिक अपने अंदर भी टटोलो प्रजापति ने सत्य के लिए श्रद्धा एवं असत्य के लिये अश्रद्धा को पैदा किया हैं।

डॉ विवेक आर्य 

Monday, August 10, 2015

संकल्प की महिमा



संकल्प की महिमा

एक बार एक लड़का परीक्षा में असफल हो गया। साथियों ने खूब मजाक बनाया। वह घर लौटकर तनाव में डूब गया। उसके माता-पिता ने उसे बहुत समझाया- 'बेटा, असफल होना इतनी बड़ी असफलता नहीं है कि तुम इतने परेशान हो जाओ और आगे के जीवन पर प्रश्नचिन्ह लगा बैठो। जब तक इंसान अच्छे-बुरे, सफलता-असफलता के दौर से खुद नहीं गुजरता, तब तक वह बड़े काम नहीं कर सकता।' लेकिन उसे उनकी बातों से संतुष्टि नहीं हुई। अशांति और निराशा में जब उसे कुछ नहीं सूझा और रात में वह आत्महत्या करने लिए चल दिया। रास्ते में उसे एक गुरु का मठ दिखाई दिया।  वह उत्सुकतावश उस मठ के अंदर चला गया।
वहां एक गुरु अपने शिष्यों को उपदेश दे थे थे। गुरूजी ने कहा-'पानी कब सड़ता है? जब वह बहता बंद कर देता है। उसके मार्ग में अनेक बाधाएं आती हैं? पर वह सभी बाधाओं को पार कर बहता रहता है। पानी का एक बिंदु से झरना, झरने से नदी, नदी से महानदी और फिर समुद्र बन जाता है? क्योंकि वह सदा बहता है। जहाँ वह रुका। सड़ जायेगा और कभी समुद्र नहीं बन पायेगा।  इसी प्रकार से मनुष्य का जीवन हैं। इस जीवन में तुम रुको मत, बहते रहो। कुछ असफलताएं आती हैं, पर तुम उनसे घबराओ मत। उन्हें लांघकर मेहनत करते चलो। बहना और चलना ही जीवन है। असफलता से घबराकर रुक गए तो उसी तरह सड़ जाओगे जैसे रुका हुआ पानी सड़ जाता है। जहाँ दुविधा आये वहां प्रभु के नाम का स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेते हुए जीवन में प्रगति करे।'

यह सुनकर लड़के ने मन में यह संकल्प कर लिया कि वह भी बहते जल के समान परिश्रम करेगा। उसके मन में श्रम करने के इच्छा पैदा हो गई।  इसी संकल्प से वह घर की ओर मुड़ गया। अगले दिन वह ईश्वर का नाम स्मरण कर वह विद्यालय की ओर चल दिया। परीश्रम, सत्य और ईमानदारी से कर्म करने से उसे जीवन में महान सफलता प्राप्त करी।

वेदों में इसी संकल्प बल की महिमा को बड़े प्रेरणादायक रूप में विवरण दिया है। मनुष्य के संकल्प में बड़ा बल छिपा है। संकल्प से बाधाओं और रुकावटों को  पार करने की शक्ति प्राप्त होती हैं। अथर्ववेद के 9/2/11 मंत्र में वेद भगवान संकल्प की महिमा का वर्णन करते हुए कहते है- मेरे संकल्प बल ने मेरे जो प्रतिद्वंदी बाधक हैं। उन्हें नष्ट कर दिया है। मेरे लिए विस्तृृत खुला हुआ लोक कर दिया है। मेरे लिए वृद्धि और विस्तार कर दिया है। अब मेरे लिए सभी दिशाएँ इष्ट फल की पूर्ति करने वाली हैं। आईये वेदों की शिक्षा का पालन करते हुए श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए संकल्प कर उन्हें प्राप्त करे।

डॉ विवेक आर्य   

Sunday, August 9, 2015

The incompetency saga



The incompetency saga

The day since government of India abides by the Supreme Court ruling of banning porn sites, a group of modern thinkers are running propaganda to prove that Government has done one of the biggest crimes in the history of mankind.

                  Writing in TOI Mr. Gurucharan Das is trying to counter the statement issued by the Union minister Ravi Shankar Prasad that banning porn appealed to India’s culture and tradition. Mr. Das considers India’s cultural history as unique in recognizing and celebrating sexual desire. Mr. Das even quotes an example from Vedas of word Kama. He writes that “Kama is the seed of desire in the mind of the One, which gave birth to the cosmos” (Rig Veda, 10.129). Writer wants to say that early Indians understood that the Kama is the source of creation, procreation and, indeed, all action. Kama optimism reached its zenith in the classical period of Indian history, culminating in Sanskrit love poetry, the Kamasutra, and a culture of erotic sringara rasa in the courtly life of the Gupta Empire and of Harsha. The erotic temple sculptures at Khajurao and Konark logically followed.
            Now we will analyze the view of Mr. Das to quench our thirst for truth. The word “Kama” does not always means sexual relations. It can be translated as “Desire” in English. Now desire can be for anything depending on person and situation. Rig Veda 10.129 is also known as “Nasidiya Sukt” means the Sukt associated with Creation of Universe. The Devta of Nasidiya Sukt is Prajapati means “Creator God”. The word Kama is mentioned in 4th mantra of this Sukt. The meaning of the word Kama in this mantra is that the God desired to create Universe for mankind to grant them the gift of Karma. Desire of God is also known as “Ikshan”. Similarly the souls in Human forms desired to do karma. The 5th mantra explains this fact in clear way. Another acronym of Kama is “Kamna”. No one will interpret word Kamna only for physical relations but a student possesses Kamna for Good marks, a household possesses Kamna for happiness, a businessman possesses Kamna for good earning. Writer will have no doubt in accepting this concept.
Writer did a blunder by considering erotic images of Kamasutra, Khajurao and Konark (3K’s) as zenith of Kama. It’s not zenith but nadir of understanding. I will like to clarify that Khajurao and Kamasutra are not our country heritage and intellect. They are symbol of downfall. Post Mahabharata war, the message of Vedas was stumbled. Man-made sects appeared. Vam-marga was one of them. This sect believed in uninhibited and unrestrained relationship. This nudity and depravity are result of same wrong beliefs. The erotic images of 3K’s are remnant of declined intellect and cogitation. Those who induced such ideas were not enlightened but ignorant folk.

Writer considers monogamy as an adopted model under stressful circumstances. If you really want to learn then you have to dive deeper. You have to reach the perfect and the purest, the Vedas. Vedas duly celebrates monogamy and consider it as advance model of thought. Vedas speak of celibacy, self-control, abstinence and chastity. Vedas suggests that all women must be respected like our own mother. Vedas speak of faithfulness for your partner. Vedas present husband and wife as inseparable and non-dissociable.

 Porn watchers can never ever dream of such high thinking and intellect. Porn will just pollute your mind and sway you away from the very motive of life. Indian seers did not attack Kama but they propagated its most practical and best meaning. Our ascetics did not limit Kama only for physical relation but for desire to do well, to serve mankind, to progress spiritually and ultimately for emancipation.

Giving fake excuses that porn is not associated with crime is a big hoax. Why have you forgotten that the Nirbhaya case main culprit Ram Singh was a regular porn movie watcher and alcohol addict? This made him a molester of innocent girls.  People shout against pedophilia and child rape. Why they forget that the porn movies spoil the mentality of youth leading to animal type behavior? This is the root cause of rapid rise in rape and ill conduct. Even milk feeding babies to old ill women are not spared by these demons.

Instead of promoting positive thought the educated class like yours is engaged in spreading disease. It clearly shows your incompetency in dealing with such important issues. It will be beneficial for whole mankind if this incompetency saga ends and ray of good hope shines.

May the light and wisdom of Vedas shower its blessings for the whole mankind!

Dr Vivek Arya

Read article by Gurucharan Das at this link

http://blogs.timesofindia.indiatimes.com/men-and-ideas/porn-prudes-and-the-parampara-of-optimism/

Saturday, August 8, 2015

आत्म संयम धर्म का प्रदाता ईश्वर है।



आत्म संयम धर्म का प्रदाता ईश्वर है।

यह संसार आशा रूपी एक गहरी नदी है। इस का एक किनारा कामना या इच्छाओं का है और दूसरा किनारा मोक्ष का है। इस नदी के भीतर अर्थ रूपी जल भरा है। इस जल में तृष्णा की बड़ी भारी तरंगें उठती हैं जो दोनों किनारों से टकराती रहती हैं। मनुष्य जब आशा नदी के किनारे पर खड़ा होकर अर्थ के मन मोहने जल को देखता है तो मोहित होकर उस में छलांग लगा देता हैं। तृष्णा की तरंगें इसे इधर उधर बहा ले जाती हैं। इस नदी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ममता आदि भँवर हैं। तृष्णा की तरंगों में बहता ,मनुष्य कभी एक भँवर में फसता कभी दूसरे में भँवर में फसता हैं। कभी कभी तो उसका पूरा जीवन इन भवरों में फंसे फंसे ही निकल जाता हैं।  इस नदी को पार करने के लिये सत्य ज्ञान रूपी नौका जिसका नाम वेद हैं विद्यमान हैं। इस नौका पर वही प्रवेश प्राप्त कर सकता हैं जिसके पर आत्म संयम रूपी धर्म हो। परन्तु मनुष्य संयम के स्थान पर भोग रूपी तृष्णा का दास बना रहना चाहता हैं। भोगों के क्षणिक सुखों को मनुष्य जीवन का ;लक्ष्य मान लेता हैं। वेदों के विद्वान मल्लाह बार बार नौका की सवारी करने के लिये पुकारते हैं। मगर मनुष्य आत्म संयम धर्म की कमी के चलते उस नौका की सवारी नहीं कर पाता। अपने संस्कार, दृढ़ निश्चय और तप से ही मनुष्य मोक्ष पथ की नौका का सवार बन पाता हैं।

किसी कवि ने सुंदर शब्दों में इस सन्देश को कहा है-

यह नदी है पुर खतर, तुम वन के दाना छोड़ दो।
भँवर इस में हैं बड़े, तुम दिल लगाना छोड़ दो।।

वेद इसी सन्देश को बड़े भव्य रूप से समझाते हैं। मनुष्य आत्म संयम धर्म की प्राप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है।  हे (ईश्वर) मित्रा वरुणो आपके बताये हुए सत्य मार्ग से चलकर नौका से नदी की तरह पापरूपी नदी को हम तैर जाएँ। - ऋग्वेद ७/६५/३

आईये ईश्वर से यह सुंदर प्रार्थना कर तृष्णाओं से बचते हुए आत्म संयम धर्म को ग्रहण करे।

डॉ विवेक आर्य 

Thursday, August 6, 2015

वैदिक धर्म और अवैदिक मत में भेद



वैदिक धर्म और अवैदिक मत में भेद

अवैदिक मत में सृष्टि के नियमों को तोड़कर अर्थात चमत्कार दिखा कर महान बनने का स्वांग किया जाता है, जबकि वैदिक धर्म में सृष्टि के नियमों का पालन कर यथार्थ में महान बना जाता है।

स्वामी दयानंद आर्याभिविनय की भूमिका में लिखते है-

 सब मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर और उसकी आज्ञा के विरुद्ध कभी नहीं हो, किन्तु ईश्वर और उसकी आज्ञा में तत्पर हो के इस लोक (संसार-व्यवहार) और परलोक (जो पूर्वोक्त मोक्ष) इनकी सिद्धि यथावत करें, यही सब मनुष्यों की कृत्या कृत्यता है।

सेमिटिक मत जैसे ईसाइयत, इस्लाम से लेकर कपोल कल्पित गुरुडम की दुकानों में चमत्कार रूपी अन्धविश्वास के माध्यम से मनुष्यों को फसाया जाता है जबकि वैदिक धर्म में श्रेष्ठ कर्म करना सिखाया जाता हैं।

अवैदिक मत मनुष्य को कर्महीन एवं आलसी बनाते हैं जबकि वैदिक धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाते हैं। अवैदिक मत मनुष्य को अंधविश्वासी एवं आचरण हीन बनाते है जबकि  वैदिक धर्म मनुष्य को ईश्वर की उपासना करते हुए शुद्ध व्यवहार करने का संदेश देता हैं।

इसलिए वैदिक धर्मी बने और जीवन को सफल बनाये।

डॉ विवेक आर्य









 

Wednesday, August 5, 2015

संगठन में शक्ति




संगठन में शक्ति 

एक दिन एक राजा ने मंत्री से कहा, "मेरा राज्य के योग्य प्रजाजनों को सम्मानित करने का विचार है, आप मुझे बताये की उनका चुनाव कैसे हो?" मंत्री ने कुछ सोच कर उत्तर दिया ,"राजन, आपके राज्य में योग्य जन तो बहुत हैं, मगर उनमें एकता का सर्वथा आभाव हैं। वे अपनी शक्ति एक दूसरे की प्रगति में रोड़ा अटकाने व्यय कर देते हैं।" राजा को मंत्री की बात अटपटी लगी। उन्होंने मंत्री से सभी योग्य पुरुषों की परीक्षा लेकर अपना तर्क सिद्ध करने का आदेश दिया। मंत्री ने अगले दिन राज्य के 20 सबसे योग्य व्यक्तियों को एक मैदान में बुलाया। एक 8 फुट गहरा एवं 8 फुट चौड़ा गड्डा मंत्री ने खुदवाया और सभी को गड्ढे में उतार दिया । मंत्री ने राजा कि उपस्थिति में सभी 20 योग्य व्यक्तियों के समक्ष घोषणा करी ,"जो भी आप 20 में से इस गडढ़े से सबसे पहले निकल कर आयेगा। राजा जी उसे राज्य का चौथाई हिस्सा पुरस्कार के रूप में देंगे।" मंत्री की घोषणा सुनकर सभी गड्ढे से बाहर निकलने का प्रयास करने लगे। जो भी सबसे आगे निकलता बाकि सब उसे पीछे खींच लेते। इस प्रकार सभी घंटों तक लगे रहे मगर अंत में सभी थक कर बेहोश हो गये। सफलता किसी को नहीं मिली। राजा को बड़ा अचरज हुआ। मंत्री ने कहा ,"राजन ! अगर इन सभी में एकता होती, परस्पर ईर्ष्या और द्वेष न होता, तो ये एक दूसरे का सहयोग कर  किसी एक को विजेता बना सकते थे। मगर आपसी तालमेल की कमी के चलते सभी प्रतियोगिता में हार गये।"

भारत देश की पिछले  5000 वर्षों में जो दुर्गति हुई हैं, उसका कारण भी यही एकता की कमी, परस्पर ईर्ष्या और द्वेष का होना हैं। महाभारत के काल में पांडव और कौरव के मध्य एकता की कमी के चलते महायुद्ध हुआ। जिसका परिणाम देश शक्तिहीन हो गया। कालांतर में विदेशी हमलावरों के समक्ष स्वदेशी राजा योग्य एवं अधिक शक्तिशाली होते हुए भी परस्पर ईर्ष्या और द्वेष के चलते हार गये।

ऋग्वेद का अंतिम सूक्त संगठन सूक्त कहलाता है। इस सूक्त का दूसरा मंत्र इस प्रकार है।

ओ३म सगंच्छध्वं सं वदध्वम् सं वो मनांसि जानतामं। देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते।।

इस मंत्र का अर्थ है- हे स्तोताओं! तुम परस्पर एक विचार से मिलकर रहो; परस्पर मिलकर प्रेम से वार्तालाप करो। तुम लोगों का मन समान होकर ज्ञान प्राप्त करें। जिस प्रकार पूर्व में लोग एक मत होकर ज्ञान संपादन करते हुए सेवनीय ईश्वर की उत्तम प्रकार से उपासना करते हैं। उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना कार्य करो। और धनादि संपन्नता ग्रहण करो।

वेद परस्पर मिलकर विचार करने, प्रेम से वार्तालाप करने, समान मन करने, ज्ञान प्राप्त करते हुए ईश्वर की उपासना करने का संदेश दे रहे हैं जिससे मानव जाति समुचित प्रगति करे।

अगर भारत देश वासियों ने वेद के "संगठन मंत्र" का पालन किया होता, तो देश कभी विदेशी आक्रान्ताओं का गुलाम नहीं बनता और सदा विश्वगुरु बना रहता।

डॉ विवेक आर्य   

Tuesday, August 4, 2015

He can never be God's martyr who is devil's martyr.




He can never be God's martyr who is devil's martyr.

(An article on online porn supporters)

Any step taken by Modi government is always opposed by a set group of people who consider themselves as members of devil oops civil society, who name themselves as social activist. This group is rarely joined by true intellectual class.
 Mostly it’s a gang of people with vested interests and hunger for media coverage. This gang is joined by any flop Bollywood star that hardly use his brain in making movies. They are best rot learners of dialogues. Also there are some fiction novel writers whose market shines by selling sex and adultery stories. Most of them are media hungry activists who shout on roads for LGBT rights, who suffered unsuccessful carrier and ended up by starting a NGO after getting frustrated by joblessness to siphon off funds from foreign countries.  Few are advocates who have worked in saving criminals and culprits by demanding hefty fees by searching loopholes in judiciary system. Now this gang talks of ethics, Human values, freedom of speech and morality when Modi government banned porn sites from internet.

I will like to ask this gang few questions?

I found most of gang members shouting in mass media when Nirbhaya episode took place for women rights. Why have they forgotten that the culprit Ram Singh was a regular porn movie watcher, and alcohol addict? This made him a molester of innocent girls?
They are shouting against pedophilia and child rape. Why have they forgotten that porn movies spoil the mentality of youth leading to animal type behavior? This is the root cause of rapid rise in rape. Even small milk feeding babies to old ill women are not spared by these demons.
Most of them are talking against male dominance in family. The result of tensed family relations is domestic violence. Why have they forgotten that porn movies have negative impact on psychology of male member? It leads man to enforce female partner to enact in animal acts as shown in porn movies. Why do you forget such simple cause when you are dealing with sensitive and important topics?
They lack morality when they support pornography. The aim of life of human is not to behave like animals. The Vedic philosophy is based on “High Thinking and plain living.” Pornography is a path leading to moral downfall and personality failure. How this gang fails to understand such simple and advanced mentation. It displays their complete ignorance and immaturity.
They take support of nude idols of Khajurao and Kamasutra by Vatsayana to prove that ancient Indians were more advanced than present as they supported free thoughts. I will like to clarify that Khajurao and Kamasutra are not my country heritage and intellect. They are symbol of downfall. Post Mahabharata war, the message of Vedas was stumbled. Man-made sects appeared. Vam-marga was one of them. This sect believed in uninhibited and unrestrained relationship. This nudity and depravity are result of same wrong beliefs. If you really want to learn then you have to dive deeper. You have to reach the perfect and purest, The Vedas. Vedas speak of celibacy, self-control, abstinence and chastity. Vedas suggests that all women must be respected like our own mother. Vedas speak of faithfulness for your partner. Vedas present husband and wife as inseparable and non-dissociable.
Instead of behaving like time wasters and street brawlers, I will advise this gang to invest their energy in fruitful and positive work for sake of Humanity and development of society.
Or
This proverb will be most appropriate proverb for you people.

सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली को हज को चली

He can never be God's martyr who is devil's martyr.

Dr Vivek Arya


#WelcomePornBan

Saturday, August 1, 2015

आप स्वामी है अथवा सेवक है?



आप स्वामी है अथवा सेवक है?

एक गांव में एक व्यक्ति रहता था जिसके पास एक घोड़ा था। उस व्यक्ति ने अपने घोड़े की सेवा करने के लिए एक सेवक रखा हुआ था। वह सेवक हर रोज प्रात: चार बजे उठता, घोड़े को पानी पिलाता, खेत से घास लेकर उसे खिलाता,चने भिगो कर खिलाता और उसका शौच हटाता, उसे लेकर जाने के लिए तैयार करता, उसके बालों को साफ करता, उसकी पीठ को सहलाता। यही कार्य सांयकाल में दोबारा से किया जाता। इसी दिनचर्या में पूरा दिन निकल जाता। अनेक वर्षों में सेवक ने कभी घोड़े के ऊपर चढ़कर उसकी सवारी करने का आनंद नहीं लिया। जबकि मालिक प्रात: उठकर तैयार होकर घर से बाहर निकलता तो उसके लिए घोड़ा तैयार मिलता हैं । वह घोड़े पर बैठकर, जोर से चाबुक मार मार कर घोड़े को भगाता था और अपने लक्ष्य स्थान पर जाकर ही रुकता था। चाबुक से घोड़े को कष्ट होता था और उसके शरीर पर निशान तक पड़ते मगर मालिक कभी ध्यान नहीं देता था। मालिक का उद्देश्य घोड़ा नहीं अपितु लक्ष्य तक पहुँचना था।

जानते हैं कि मालिक कौन हैं और सेवक कौन हैं और घोड़ा कौन हैं? यह मानव शरीर घोड़ा हैं। इस शरीर को सुबह से लेकर शाम तक सजाने वाला, नए नए तेल, उबटन, साबुन, शैम्पू, इत्र , नए नए ब्रांडेड कपड़े, जूते, महंगी घड़ियाँ और न जाने किस किस माध्यम से जो इसको सजाता हैं वह सेवक हैं अर्थात इस शरीर को प्राथिमकता देने वाला मनुष्य सेवक के समान हैं। वह कभी इस शरीर का प्रयोग जीवन के लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए नहीं करता अपितु उसे सजाने-संवारने में ही लगा रहता हैं, जबकि वह जानता हैं की एक दिन वृद्ध होकर उसे यह शरीर त्याग देना हैं। जबकि जो मनुष्य इन्द्रियों का दमन कर इस शरीर का दास नहीं बनता अपितु इसका सदुपयोग जीवन के उद्देश्य को, जीवन के लक्ष्य को सिद्ध करने में करता हैं वह इस शरीर का असली स्वामी हैं। चाहे इस कार्य के लिए शरीर को कितना भी कष्ट क्यों न देना पड़े, चाहे कितना महान तप क्यों न करना पड़े, यम-नियम रूपी यज्ञों को सिद्ध करते हुए समाधी अवस्था तक पहुँचने के लिए इस शरीर को साधन मात्र मानने वाला व्यक्ति ही इस शरीर का असली स्वामी हैं।

ऋग्वेद 9/73/6 में ईश्वर को "पवमान" अर्थात पवित्र करने वाला बताया गया है। पवमान ईश्वर अपने स्वर्गिक ज्ञान के स्वरों और दिव्य प्रकाश की किरणों से सत्यनियम रूपी स्वर और प्रकाश रूपी ज्ञान का नाद कर रहा हैं। प्रभु की वीणा से निकले स्वर और रश्मियों रूपी किरण से यह सब जगत वियुप्त हो रहा हैं। जो इन्द्रियों के भोग में अंधे और बहरे हो जाते हैं वह न ईश्वर के इस पवित्र करने वाले नाद को सुन पाते हैं, न उसके दिव्य प्रकाश के दर्शन कर पाते हैं। आईये हम सब अपने कान और आँख खोल ले जो ईश्वर ने हमें दिए हैं और उनसे प्रभुधाम से आने वाले अनवरत दिव्य स्वर और प्रकाश को ग्रहण करे। जो व्यक्ति इस शरीर का स्वामी है, वही ईश्वर के पवमान स्वर को सुन सकता हैं। शरीर का सेवक तो सदा अँधा और बहरा ही बना रहेगा।    

आप स्वयं विचार करे क्या आप स्वामी हैं अथवा सेवक हैं?

डॉ विवेक आर्य