Wednesday, March 30, 2016

Little knowledge is always dangerous.



Little knowledge is always dangerous.

Irfan Habib, noted Historian while speaking in JNU commented on the recent issue of nationalism that Bharat Mata is not even Indian. According to Habib, 'Bharat Mata' was an import from Europe and there was no evidence of any such imagination in either ancient or medieval India. So, did the idea of 'Bharat Mata' come from Britannia? In the 2nd century, Roman Britannia came to be personified as a goddess, armed with a trident and shield and wearing a Corinthian helmet. She sat on a lion too. It is a European import. Notions of motherland and fatherland were talked about in Europe.

Analysis

First of all I feel pity of the incompetent and deficient knowledge of Irfan Habib. He seems to be driven by the mindset approach of Islam. He must possess rational and scholarly approach in dealing with such sensitive issues.

Second my belief which is becoming stronger day by day that any person sitting on Historian post should stop claiming his or herself as specialist of all subjects. This habit has caused biggest harm to Humanity. History is being defined on the basis of opinion of majority of historians especially associated with communist and Marxist school of thought rather than on the basis of true evidences. If a person is historian he need not be orientalist. If a person is Orientalist he need not be a Sanskrit scholar. If a person is Sanskrit scholar he need not be a scholar of Vedas. If a person is scholar of Vedas he need not be an Archeologist. If a person is Archeologist he need not be Indologist. But anyone concerned with these jobs will try to project themselves as specialist and perfect scholar in all fields. Irfan Habib, Romila Thaper, Wendy Doniger, Sheldon Pollock, Bipin Chandra et al seems to be suffering from the same “All-Specialist Syndrome”. Truth is that this class of historians should refrain from commenting in such topics in which they have superficial or deficient knowledge.

Third Irfan Habib seems to be partially correct in saying that the idea of Bharat Mata is not even Indian. In reality it’s Universal. For any person in the World the land where he first opens his eyes, first inhales its air, eat and drink its food to survive, it’s like his mother. Motherland is like care-taker to anyone. As mother takes care of its baby in similar way motherland takes care of humans. That’s the logic behind the concept of Motherland. Now analyzing your claims of Bharat Mata to be imagined in 2nd century I will like to quote ‘’Prithvi Sukt’ from 12th Chapter of Atharveda. This Sukt explains that our Motherland provides us with all comforts, bless us with prosperity, courage and splendor. So, we must glorify, respect, protect, admire and honor our motherland. You can read similar message in Yajurveda 2:10 and 9:22. So, the concept of motherland is derived from the Vedas. It’s neither foreign nor an imagination. It’s a real and admirable concept as it teach us to love our motherland.

Take home message-

Opposing any great concept just to satisfy wicked politicians and there vested interest is nothing more than foolishness. Nationalism should be the first preference for all countryman whether Hindu or Muslim of Christian. It’s a noble idea above the beliefs of Religion.

A proverb fits well on the ignorance of Irfan Habib “Little knowledge is always dangerous”

Dr. Vivek Arya



Link of news



http://www.huffingtonpost.in/2016/03/29/mohan-bhagwat-bharat-mata_n_9560680.html?utm_source=COLUMBIA&utm_medium=cpc&utm_campaign=DailyManual8Jan_31JanIndia

Sunday, March 20, 2016

दलित उत्थान का प्रेरणादायक संस्मरण



दलित उत्थान का प्रेरणादायक संस्मरण


प्रोफेसर शेर सिंह जाने माने राजनीतिज्ञ एवं भारत सरकार के पूर्व मंत्री थे। आप जाट गोत्र से थे। आप भागपुर गांव, तहसील बेरी, जिला झज्जर, हरियाणा प्रान्त के निवासी थे। जब आप आठवीं कक्षा में थे तो उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार आपका विवाह जाट गोत्र कि कन्या से तय हो गया। आपके पिताजी चौधरी शीश राम आर्य गांव के बड़े जमींदार थे। उस ज़माने में दलितों को सार्वजानिक कुँए से जल भरने की अनुमति न थी। स्वामी दयानंद द्वारा जातिवाद को मिटाने के उद्घोष से प्रभावित होकर आपके पिताजी ने अपने खेत में स्थित कुँए को दलितों के लिए पानी भरने हेतु खोल दिया। यह घटना जनवरी 1926 की है। जब शेर सिंह के ससुराल पक्ष को मालूम चला कि अपने अपने कुओं पर दलितों को चढ़ा दिया हैं तो उन्होंने आपत्ति करी। शेर सिंह जी के पिता पर रिश्ता तोड़ने का दवाब तक बनाया गया। शेर सिंह के पिता जी ने कहा मुझे रिश्ता तोड़ना मंजूर है मगर दलितों के साथ हो रहे अन्याय का समर्थन करना मंजूर नहीं हैं। अंत में शेर सिंह का रिश्ता टूट गया। मगर स्वामी दयानंद के सैनिक जातिवाद को मिटाने में कामयाब हुए। बाद में जनसामान्य ने उनकी चेष्टा को समझा और दलितों को सार्वजानिक कुओं से पानी भरने का किसी ने कोई विरोध नहीं किया।
महार दलित समाज में पैदा होकर दलितों के लिए कुँए खुलवाने वाले डॉ अम्बेडकर का नाम तो सभी राजनीतिक पार्टिया लेती है। मगर सवर्ण समाज में पैदा होकर दलितों के लिए संघर्ष करने वाला आपको कोई स्वामी दयानंद का शिष्य ही मिलेगा। आर्यसमाज के जातिवाद को मिटाने के संकल्प में भागी बने। तभी यह देश बचेगा।
डॉ विवेक आर्य
(चित्र में प्रोफेसर शेर सिंह हरियाणा में आर्यसमाज के अपने समय के शीर्घ नेता स्वामी ओमानन्द जी के साथ)

Saturday, March 19, 2016

डॉ अम्बेडकर के इस्लाम के विषय में विचार



डॉ अम्बेडकर के इस्लाम के विषय में विचार 

१. हिन्दू काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं-”मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासनहो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी सति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।” (पृ. ३०४)
२. मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।”
३. एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल-”लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारण है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपिकांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।” (पृ. ४१४-४१५)
४. भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए-”मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं को भी अपेक्षा अपनी ‘गाद’ से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।” (पृ. ४९)
५. मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी-”तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागिर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।” (पृ. २६७)
६. हत्यारे धार्मिक शहीद-”महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।”(पृ. १४७-१४८)
७. हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां-”आध्याम्कि दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्‌स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।” (पृ. १८५)
८. इस्लाम और जातिप्रथा-”जाति प्रथा को लीजिए। इस्लाम भ्रातृ-भाव की बात कहता है। हर व्यक्ति यही अनुमान लगाता है कि इस्लाम दास प्रथा और जाति प्रथा से मुक्त होगा। गुलामी के बारे में तो कहने की आवश्यकता ही नहीं। अब कानून यह समाप्त हो चुकी है। परन्तु जब यह विद्यमान थी, तो ज्यादातर समर्थन इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से ही मिलता था। कुरान में पैंगबर ने गुलामों के साथ उचित इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस अभिषाप के उन्मूलन के समर्थन में हो। जैसाकि सर डब्ल्यू. म्यूर ने स्पष्ट कहा है-
”….गुलाम या दासप्रथा समाप्त हो जाने में मुसलमानों का कोई हाथ नहीं है, क्योंकि जब इस प्रथा के बंधन ढीले करने का अवसर था, तब मुसलमानों ने उसको मजबूती से पकड़ लिया….. किसी मुसलमान पर यह दायित्व नहीं है कि वह अपने गुलामों को मुक्त कर दें…..”
”परन्तु गुलामी भले विदा हो गईहो, जाति तो मुसलमानों में क़ायम है। उदाहरण के लिए बंगाल के मुसलमानों की स्थिति को लिया जा सकता है। १९०१ के लिए बंगाल प्रांत के जनगणना अधीक्षक ने बंगाल के मुसलमानों के बारे में यह रोचक तथ्य दर्ज किए हैं :
”मुसलमानों का चार वर्गों-शेख, सैयद, मुग़ल और पठान-में परम्परागत विभाजन इस पांत (बंगाल) में प्रायः लागू नहीं है। मुसलमान दो मुखय सामाजिक विभाग मानते हैं-१. अशरफ अथवा शरु और २. अज़लफ। अशरफ से तात्पर्य है ‘कुलीन’, और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊँची जाति के अधर्मांतरित हिन्दू शामिल हैं। शेष अन्य मुसलमान जिनमें व्यावसायिक वर्ग और निचली जातियों के धर्मांतरित शामिल हैं, उन्हें अज़लफ अर्थात्‌ नीचा अथवा निकृष्ट व्यक्ति माना जाता है। उन्हें कमीना अथवा इतर कमीन या रासिल, जो रिजाल का भ्रष्ट रूप है, ‘बेकार’ कहा जाता है। कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग ‘अरज़ल’ भी है, जिसमें आने वाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनके साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है।
इन वर्गों में भी हिन्दुओं में प्रचलित जैसी सामाजिक वरीयताऔर जातियां हैं।
१. ‘अशरफ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान (प) सैयद, (पप) शेख, (पपप) पठान, (पअ) मुगल, (अ) मलिक और (अप) मिर्ज़ा।
२. ‘अज़लफ’ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान
(i) खेती करने वाले शेख और अन्य वे लोग जो मूलतः हिन्दू थे, किन्तु किसी बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्धित नहीं हैं और जिन्हें अशरफ समुदाय, अर्थात्‌ पिराली और ठकराई आदि में प्रवेश नहीं मिला है।
( ii) दर्जी, जुलाहा, फकीर और रंगरेज।
(iii) बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धावा, धुनिया, गड्‌डी, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, माहीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी।
(iv) अब्दाल, बाको, बेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, पनवाड़िया, मदारिया, तुन्तिया।
३. ‘अरजल’ अथवा निकृष्ट वर्ग
भानार, हलालखोदर, हिजड़ा, कसंबी, लालबेगी, मोगता, मेहतर।
जनगणना अधीक्षक ने मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के एक और पक्ष का भी उल्लेख किया है। वह है ‘पंचायत प्रणाली’ का प्रचलन। वह बताते हैं :
”पंचायत का प्राधिकार सामाजिक तथा व्यापार सम्बन्धी मामलों तक व्याप्त है और……..अन्य समुदायों के लोगों से विवाह एक ऐसा अपराध है, जिस पर शासी निकायकार्यवाही करता है। परिणामत: ये वर्ग भी हिन्दू जातियों के समान ही प्रायः कठोर संगोती हैं, अंतर-विवाह पर रोक ऊंची जातियों से लेकर नीची जातियों तक लागू है। उदाहरणतः कोई घूमा अपनी ही जाति अर्थात्‌ घूमा में ही विवाह कर सकता है। यदि इस नियम की अवहेलना की जाती है तो ऐसा करने वाले को तत्काल पंचायत के समक्ष पेश किया जाता है। एक जाति का कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी दूसरी जाति में प्रवेश नहीं ले पाता और उसे अपनी उसी जाति का नाम कायम रखना पड़ता है, जिसमें उसने जन्म लिया है। यदि वह अपना लेता है, तब भी उसे उसी समुदाय का माना जाता है, जिसमें कि उसने जन्म लिया था….. हजारों जुलाहे कसाई का धंधा अपना चुके हैं, किन्तु वे अब भी जुलाहे ही कहे जाते हैं।”
इसी तरह के तथ्य अन्य भारतीय प्रान्तों के बारे में भी वहाँ की जनगणना रिपोर्टों से वे लोग एकत्रित कर सकते हैं, जो उनका उल्लेख करना चाहते हों। परन्तु बंगाल के तयि ही यह दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि मुसलमानों में जाति प्राणी ही नहीं, छुआछूत भी प्रचलित है।” (पृ. २२१-२२३)
९. इस्लामी कानून समाज-सुधार के विरोधी-”मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुखदहैं। किन्तु उससे भी अधिक दुखद तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आन्दोलन नहीं उभरा जो इन बुराईयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके। हिन्दुओं में भी अनेक सामाजिक बुराईयां हैं। परन्तु सन्तोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराईयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आन्दोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर, मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं। परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते। इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों ने केन्द्रीय असेंबली में १९३० में पेश  किए गए बाल विवाह विरोधी विधेयक का भी विरोध किया था, जिसमें लड़की की विवाह-योग्य आयु १४ वर्ष् और लड़के की १८ वर्ष करने का प्रावधान था। मुसलमानों ने इस विधेयक का विरोध इस आधार पर किया कि ऐसा किया जाना मुस्लिम धर्मग्रन्थ द्वारा निर्धारित कानून के विरुद्ध होगा। उन्होंने इस विधेयक का हर चरण पर विरोध ही नहीं किया, बल्कि जब यह कानून बन गया तो उसके खिलाफ सविनय अवज्ञाअभियान भी छेड़ा। सौभाग्य से उक्त अधिनियम के विरुद्ध मुसलमानों द्वारा छोड़ा गया वह अभ्यिान फेल नहीं हो पाया, और उन्हीं दिनों कांग्रेस द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में समा गया। परन्तु उस अभियान से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि मुसलमान समाज सुधार के कितने प्रबल विरोधी हैं।” (पृ. २२६)
१०. मुस्लिम राजनीतिज्ञों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का विरोध-”मुस्लिम राजनीतिज्ञ जीवन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं मानते, क्योंकि उने लिए इसका अर्थ हिन्दुओं के विरुद्ध अपने संघर्ष में अपने समुदाय को कमजोर करना ही है। गरीब मुसलमान धनियों से इंसाु पाने के लिए गरीब हिन्दुओं के साथ नहीं मिलेंगे। मुस्लिम जोतदार जमींदारों के अन्याय को रोकने के लिए अपनी ही श्रेणी के हिन्दुओं के साथ एकजुट नहीं होंगे। पूंजीवाद के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में मुस्लिम श्रमिक हिन्दू श्रमिकों के साथ शामिल नहीं होंगे। क्यों ? उत्तर बड़ा सरल है। गरीब मुसलमान यह सोचता है कि यदि वह धनी के खिलाफ गरीबों के संघर्ष में शामिल होता है तो उसे एक धनी मुसलमान से भी टकराना पड़ेगा। मुस्लिम जोतदार यह महसूस करते हैं कि यदि वे जमींदारों के खिलाफ अभियान में योगदान करते हैं तो उन्हें एक मुस्लिम जमींदार के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ सकता है। मुसलमान मजदूर यह सोचता है कि यदि वह पूंजीपति के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में सहभागी बना तो वह मुस्लिम मिल-मालिक की भावाओं को आघात पहुंचाएगा। वह इस बारे में सजग हैं कि किसी धनी मुस्लिम, मुस्लिम ज़मींदार अथवा मुस्लिम मिल-मालिक को आघात पहुंचाना मुस्लिम समुदाय को हानि पहुंचाना है और ऐसा करने का तात्पर्य हिन्दू समुदाय के विरुद्ध मुसलमानों के संघर्ष को कमजोर करना ही होगा।” (पृ. २२९-२३०)
११. मुस्लिम कानूनों के अनुसार भरत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती-”मुस्लिम धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार, विश्व दो हिस्सो में विभाजित है-दार-उल-इस्लाम तथा दार-उल-हर्ब। मुस्लिम शासित देश दार-उल-इस्लाम हैं। वह देश जिसमें मुसलमान सिर्फ रहते हैं, न कि उस पर शासन करते हैं, दार-उल-हर्ब है। मुस्लिम धार्मिक कानून का ऐसा होने के कारण भारत हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों की मातृभूमि नहीं हो सकती है। यह मुसलमानों की धरती हो सकती है-किन्तु यह हिन्दुओं और मुसलमानों की धरती, जिसमें दोनोंसमानता से रहें, नहीं हो सकती। फिर, जब इस पर मुसलमानों का शासन होगा तो यह मुसलमानों की धरती हो सकती है। इस समय यह देश गैर-मुस्लिम सत्ता के प्राधिकार के अन्तर्गत हैं, इसलिए मुसलमानों की धरती नहीं हो सकती। यह देश दार-उल-इस्लाम होने की बजाय दार-उल-हर्ब बन जाताप है। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह दृष्टिकोण केवल शास्त्रीय है। यह सिद्धान्त मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है।” (पृ. २९६-२९७)
१२. दार-उल-हर्व भारत को दार-उल-इस्लाम बनाने के लिए जिहाद-”यह उल्लेखनीय है कि जो मुसलमान अपने आपको दार-उल-हर्ब में पाते हैं, उनके बचाव के लिए हिजरत ही उपाय नहीं हैं मुस्लिम धार्मिक कानून की दूसरी आज्ञा जिहाद (धर्म युद्ध) है, जिसके तहत हर मुसलमान शासक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे, जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। संसार के दो खेमों में बंटने की वजह से सारे देश या दो दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का घर) या दार-उल-हर्ब (युद्ध का घर) की श्रेणी में आते हैं। तकनीकी तौर पर हर मुस्लिम शासक का, जो इसके लिए सक्षम है, कर्त्तव्य है कि वह दार-उल-हब्र कोदार-उल-इस्लाम में बदल दे; और भारत में जिस तरह मुसलमानों के हिज़रत का मार्ग अपनाने के उदाहरण हैं, वहाँ ऐसेस भी उदाहरण हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया।”
”तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।” (पृ. २९७-२९८)
१३. हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही ?-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता हैं दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, तब तक हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है।” (पृ. ३३६)
१४. हिन्दू-मुस्लिम एकता असम्भव कार्य-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शब्दों से और कोई शबदावली नहीं रख सकता। अब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता कम-से-कम दिखती तो थी, भले ही वह मृग मरीचिका ही क्यों न हो। आज तो न वह दिखती हे, और न ही मन में है। यहाँ तक कि अब तो गाांी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असम्भव कार्य है।” (पृ. १७८)
१५. साम्प्रदायिक शान्ति के लिए अलपसंखयकों की अदला-बदली ही एक मात्र हल-”यह बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने का टिकाऊ तरीका अल्पसंखयकों की अदला-बदली ही हैं।यदि यही बात है तो फिर वह व्यर्थ होगा कि हिन्दू और मुसलमान संरक्षण के ऐसे उपाय खोजने में लगे रहें जो इतने असुरक्षित पाए गए हैं। यदि यूनान, तुकी और बुल्गारिया जैसे सीमित साधनों वाले छोटे-छोटे देश भी यह काम पूरा कर सके तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिन्दुस्तानी ऐसा नहीं कर सकते। फिर यहाँ तो बहुत कम जनता को अदला-बदली करने की आवश्यकता पड़ेगी ओर चूंकि कुछ ही बाधाओं को दूर करना है। इसलिए साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने के लिए एक निश्चित उपाय को न अपनाना अत्यन्त उपहासास्पद होगा।” (पृ. १०१)
१६. विभाजन के बाद भी अल्पसंखयक-बहुसंखयक की समस्या बनी ही रहेगी-”यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि पाकिस्तान बनने से हिन्दुस्तान साम्प्रदायिक समस्यासे मुक्त नहीं हो जाएगा। सीमाओं का पुनर्निर्धारण करके पाकिस्तान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता हे, परन्तु हिन्दुस्तान तो एक मिश्रित देश बना ही रहेगा। मुसलमान समूचे हिन्दुस्तान में छितरे हुए हैं-यद्यपि वे मुखयतः शहरों और कस्बों में केंद्रित हैं। चाहे किसी भी ढंग से सीमांकन की कोशिश की जाए, उसे सजातीय देश नहीं बनायाजा सकता। हिन्दुस्तान को सजातीय देश बनाने काएकमात्र तरीका है, जनसंखया की अदला-बदली की व्यवस्था करना। यह अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं कियाजाएगा, हिन्दुस्तान में बहुसंखयक बनाम अल्पसंखयक की समस्या और हिन्दुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी ही रहेगी।” (पृ. १०३)
१७. अल्पसंखयकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपाय-”अब मैं अल्पसंखयकों की उस समस्या की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ जो सीमाओं के पुनः निर्धारण के उपरान्त भी पाकिस्तान में बनी रहेंगी। उनके हितों की रक्षा करने के दो तरीके हैं। सबसे पहले, अल्पसंखयकों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान में सुरक्षा उपाय प्रदान करने हैं। भारतीय के लिए यह एक सुपरिचित मामला है और इस बात पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है।” (पृ. ३८५)
१८. अल्पसंखयकों की अदला-बदली-एक संभावित हल-”दूसरा तरीका है पाकिस्तान से हिन्दुस्तान में उनका स्थानान्तरणकरने की स्थिति पैदा करना। अधिकांश जनता इस समाधान को अधिक पसंद करती हे और वह पाकिस्तान की स्वीकृति के लिए तैयार और इच्छुक हो जाएगी, यदि यह प्रदर्शित किया जा से कि जनसंखया का आदान-प्रदान सम्भव है। परन्तु इसे वे होश उड़ा देने वालीऔर दुरूह समस्या समझते हैं। निस्संदेह यह एक आतंकित दिमाग की निशनी है। यदि मामले पर ठंडे और शांतिपूर्ण एंग से विचार किया जाए तो पता लग जाएगा कि यह समस्या न तो होश उड़ाने वाली है, और न दुरूह।” (पृ. ३८५)
(सभी उद्धरण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्‌मय, खंड १५-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २००० से लिए गए हैं)

Friday, March 18, 2016

ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |


ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
चाहे सुबह हो चाहे शाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है वेदों का वरदान, ओ३म् का नाद है ब्रह्म सामान |
ओ३म् है जीवन ओ३म् है प्राण, ओ३म् में रहते स्वंय भगवान् |
ओ३म् को सुमरो आंठो याम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् की ध्वनि है अति पावन ओ३म् का मंत्र है मन भावन |
ओ३म् की ध्वनि है अति पावन ओ३म् का मंत्र है मन भावन |
ओ३म् का अक्षर है अनुपम, ये श्रुष्टि का शब्द प्रथम |
ओ३म् का अक्षर है अनुपम, ये श्रुष्टि का शब्द प्रथम |
इसपे निछावर शब्द कमान, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् कहो ओमकार कहो, शब्द ये बारम्बार कहो |
ओ३म् कहो ओमकार कहो, शब्द ये बारम्बार कहो |
ओ३म की महिमा अपरम्पार, ओ३म् करेगा का बेडा पार |
ओ३म की महिमा अपरम्पार, ओ३म् करेगा का बेडा पार |
जीतोगे जीवन संग्राम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
मनुष्य जन्म पाने वालो जीवन धन्य बना डालो |
मनुष्य जन्म पाने वालो जीवन धन्य बना डालो |
इत उत नाहक़ मत दौड़ो, ओ३म् से निज नाता जोड़ो |
इत उत नाहक़ मत दौड़ो, ओ३म् से निज नाता जोड़ो |
निश्चय होगा शुभ परिणाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म का नाम है प्रभु का नाम, ओ३म है परमानन्द का धाम |
ओ३म् का सुमरण है अनमोल, ऋषि मुनियों ने देखा तोल |
ओ३म है चंचल चित की लगाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म्, सब कोई बोलो ओ३म् भाई ओ३म्
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् है जीवन ओ३म् है प्राण, ओ३म् में रहते स्वंय भगवान् |
ओ३म् को सुमरो आंठो याम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् की ध्वनि है अति पावन ओ३म् का मंत्र है मन भावन |
ओ३म् की ध्वनि है अति पावन ओ३म् का मंत्र है मन भावन |
ओ३म् का अक्षर है अनुपम, ये श्रुष्टि का शब्द प्रथम |
ओ३म् का अक्षर है अनुपम, ये श्रुष्टि का शब्द प्रथम |
इसपे निछावर शब्द कमान, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् कहो ओमकार कहो, शब्द ये बारम्बार कहो |
ओ३म् कहो ओमकार कहो, शब्द ये बारम्बार कहो |
ओ३म की महिमा अपरम्पार, ओ३म् करेगा का बेडा पार |
ओ३म की महिमा अपरम्पार, ओ३म् करेगा का बेडा पार |
जीतोगे जीवन संग्राम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
मनुष्य जन्म पाने वालो जीवन धन्य बना डालो |
मनुष्य जन्म पाने वालो जीवन धन्य बना डालो |
इत उत नाहक़ मत दौड़ो, ओ३म् से निज नाता जोड़ो |
इत उत नाहक़ मत दौड़ो, ओ३म् से निज नाता जोड़ो |
निश्चय होगा शुभ परिणाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म का नाम है प्रभु का नाम, ओ३म है परमानन्द का धाम |
ओ३म् का सुमरण है अनमोल, ऋषि मुनियों ने देखा तोल |
ओ३म है चंचल चित की लगाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम |
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म् भजो ओ३म्, सब कोई बोलो ओ३म् भाई ओ३म्
ओ३म् है परमपिता का नाम, भजलो प्यारे ओ३म् का नाम ||
कवी:- प्रदीप

Tuesday, March 15, 2016

रोहित वेमुला को किसने मारा?


रोहित वेमुला को किसने मारा?

पिछले कुछ दिनों से हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला कि आत्महत्या का दोष "स्वघोषित न्यायाधीश भारतीय मीडिया" मोदी सरकार और स्मृति ईरानी के सर पर मढ़ रहा हैं। यह वो पक्ष है जो दिखाया जा रहा है। मगर सत्य कुछ ओर है। रोहित वेमुला जैसे हज़ारों छात्रों को सरकार हर वर्ष करोड़ों रुपये की सब्सिडी देकर योग्यता अर्जित करने का अवसर प्रदान करती हैं। इस सहयोग का मुख्य उद्देश्य समाज के लिए एक सुपठित, बुद्धिजीवी, जिम्मेदार, आदर्श नागरिक बनाना होता हैं जो समाज और देश के विकास में अपना योगदान दे। पिछले कुछ दशकों से भारतीय विश्वविद्यालयों को पढ़ने-पढ़ाने के स्थान पर राजनीतिक पार्टियां धरना-प्रदर्शन आदि करने का मंच के रूप में प्रयोग कर रही हैं। सबसे बड़ी बात देखिये की समाज को सबसे अधिक लाभ देने वाले डॉक्टर, इंजीनियर आदि इस पार्टीबाजी में कभी भाग नहीं लेते। उनका उद्देश्य केवल कठिन पाठ्यक्रम को पूरा कर अपना कोर्स पूरा कर नौकरी आदि करना होता हैं। इसके परत कुछ विश्वविद्यालयों में ऐसे अनेक कोर्स ऐसे चल रहे हैं जिसे हम टाइम पास कहे तो सही रहेगा। इन कोर्सों में दाखिला लेने वाले पढ़ने नहीं अपितु अपनी राजनीती चमकाने वहां आते हैं। कुछ धनी माँ -बाप की संतान होते हैं। इसलिए उनका भविष्य सुनिश्चित होता हैं। मगर बहुतेरे ऐसे युवक भी होते हैं जो निर्धन पृष्ठभूमि से आते हैं। ऐसे युवक पार्टियों के इस भ्रामक दुष्प्रचार का शिकार होकर अपनी शिक्षा से अधिक राजनीतिक पार्टियों के एजेंडा को प्राथमिकता देने लगते है। रोहित वेमुला भी ऐसा ही युवक था। निर्धन पृष्ठभूमि से निकल कर उसे भी जीवन में उच्च स्थान अर्जित करने और बड़ा आदमी बनने का अवसर मिला था। मगर दलित राजनीती के दुष्प्रचार का वह शिकार हो गया। उसे सिखाया गया बीफ फेस्टिवल बनाने, महिषासुर दिवस बनाने, भारतीय संविधान द्वारा फांसी चढ़ाये गए आतंकवादी याकूब मेनन के समर्थन में नारे लगाने, बाबरी मस्जिद विध्वंश दिवस बनाने, "मुजफ्फरनगर अभी बाकि है" जैसी फिल्मों का प्रदर्शन करने, टीपू सुल्तान का महिमा मंडन करने, ओवैसी के उटपटांग बयानों पर तालियां बजाने का कार्य करने में अपनी ऊर्जा लगाने से समाज सुधार होगा। ऐसे कार्यों को करने के चक्कर में विश्वविद्यलय में अनुशाषणहीनता के आरोप भी रोहित पर लगे, जिसके चलते उसकी छात्रवृति बंद हो गई। उधारी से कब तक कार्य चलता। ऐसी दशा में उसे दलित राजनीती करने वाली पार्टियां सब नकली, ढोंगी, मतलब निकालने वाली दिखने लगी। जब सच सामने आया तो रोहित जैसे साधारण युवक अवसाद से ग्रसित होकर आत्महत्या के लिए विवश हो गया। अंत परिणाम सभी को ज्ञात है।
यक्ष प्रश्न यही है कि "रोहित वेमुला को किसने मारा?" उत्तर भी स्पष्ट है। रोहित वेमुला को उसका इस्तेमाल कर बब्बल गम के समान फेंकने वालो ने मारा। उसको "नाम बड़े दर्शन छोटे" वाले राजनीतिक चेहरों ने मारा। जिनके लिए उसने अपना जीवन दाव पर लगा दिया उसे उन्हीं लोगों ने उसे मारा। भड़काने वाले भाषण, नकारात्मक सोच, तोड़ने वाली मानसिकता, जहरीले विचार, दूरियां बढ़ाने वाले नारे, द्वेष भावना को बढ़ावा देने वाली राजनीति के उसे मारा। विडंबना देखिये उसके मरने के बाद वही लोग उसे ही पोस्टर बॉय बनाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। सब भाषणबाजी में लगे हैं। मगर इस स्वार्थ भरी राजनीति के कारण रोहित जैसे कितने प्रतिभाशाली युवा आज अपना भविष्य बर्बाद कर गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। यह किसी ने नहीं सोचा। पहले बर्बाद करो फिर उसके नाम पर राजनीति करो।
जो युवा इस लेख को पढ़ रहे हैं। वो चिंतन करे और सोचे कि उन्हें जीवन में क्या बनना हैं। एक हताश, कुंठित, निराश, परेशान, हतोत्साहित, बेरोजगार युवा अथवा एक आदर्श, गुणी, जिम्मेदार, हित करने वाला, कल्याण करने वाला नागरिक।
सोचना आपको है!
डॉ विवेक आर्य

भेड़ की खाल में भेड़िया


भेड़ की खाल में भेड़िया
किसी ने मुझसे पूछा की भेड़ की खाल में भेड़िया का उदहारण दो।
मैंने कहा आज के समाज में भेड़ की खाल में भेड़िया का सबसे सटीक उदहारण "दलित चिंतक/विचारक" हैं। जो खाते इस देश का है, आरक्षण भी इस देश लेते है और गाली भी इस देश को ही देते है। कुछ उदहारण द्वारा मैं इस तथ्य को समझाना चाहता हूँ।
1. दलित चिंतक हर हिन्दुत्ववादी को ब्राह्मणवाद, मनुवाद के नाम पर गाली देते हैं। इसमें वो हिन्दू भी शामिल हैं जो जातिवाद को नहीं मानते और परस्पर सहयोग से जातिवाद का नाश करना चाहते है।
2. दलित चिंतक पाकिस्तान ज़िंदाबाद, कश्मीर में आज़ादी जैसी मांगों को करने वाले अलगाववादियों के साथ खड़े दिखाई देते हैं। यह एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह हैं। वे भारतीय सेना के कश्मीर की रक्षा में दिए गए योगदान को जनता से अनभिज्ञ रखकर भारत विरोधी नारे बाजी और सेना पर पत्थरबाजी करने वालों को महिमामंडित करते दिखाई देते हैं।
3. दलित चिंतक भारतीय संस्कृति, वेद, दर्शन, उपनिषद् आदि की पवित्र शिक्षाओं को जानते हुए भी विदेशी विद्वानों के घीसे पिटे अधकचरे और भ्रामक अनुवादों को शोध के नाम पर रटते/गाते रहते हैं। उनका उद्देश्य प्राचीन महान आर्य संस्कृति को गाली देना होता हैं। JNU जैसे संस्थानों से हर वर्ष शोध के नाम पर ऐसा कूड़ा कचरा ही छपता हैं।
4. भारतीय संविधान निर्माता डॉ अम्बेडकर द्वारा बनाये गए संविधान के आधार पर दोषी देश द्रोही अफ़जल गुरु, याकूब मेनन जैसो की फांसी का करना हमारे संविधान की अवमानना करने के समान हैं। इस प्रकार से ये भेड़िये डॉ अम्बेडकर के किये कराये पर पानी फेर रहे हैं।
5. डॉ अम्बेडकर को हैदराबाद के निज़ाम ने इस्लाम स्वीकार करने के लिए भारी प्रलोभन दिया था। उन्होंने देशभक्त के समान उसे सिरे से नकार दिया था। NGO धंधे की आड़ में दलित चिंतक विदेशों से पैसा लेकर भारत को कमजोर बनाने में लगे हुए हैं। वे विदेशी ताकतों के इशारे पर देश तोड़क कार्य करते हैं।
6. कहने को दलित चिंतक अपने आपको महात्मा बुध्द का शिष्य बताते हैं। अहिंसा का सन्देश देने वाले महात्मा बुध्द के शिक्षा बीफ़ फेस्टिवल बनाकर गौमांस खाकर अपनी अहिंसा का साक्षात प्रदर्शन करते हैं। इनसे बड़े दोगले आपको देखने को नहीं मिलेंगे। क्यूंकि ऐसी गतिविधि का उद्देश्य केवल और केवल सामाजिक एकता का नाश होता हैं।
7. जब भी देश में हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते है। तब मुसलमान दंगाई यह भेद नहीं देखते की हिन्दू स्वर्ण हैं अथवा दलित। उनके लिए तो सभी काफ़िर हैं। दंगों में सभी स्वर्ण और दलित हिन्दुओं की हानि होती हैं। जमीनी हकीकत यही है। दंगे शांत होने पर दलित चिंतक दलितों को मुसलमानों द्वारा जो प्रताड़ित किया गया उसकी अनदेखी कर 'मुजफ्फरनगर अभी बाकि है' जैसी वृत्तचित्रों का समर्थन करते है। इसे दलितों की पीठ पीछे छुरा घोपना कहा जाये तो सटीक रहेगा।
8. मुसलमानों द्वारा लव जिहाद में फंसाकर स्वर्ण और दलित दोनों हिन्दुओं की लड़कियों का जीवन बर्बाद किया जाता हैं। इस सोची समझी साज़िश की अनदेखी कर दलित चिंतक लव जिहाद षड्यंत्र को कल्पना बताने वालों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े दिखाई देते है। इस पर आप ही टिप्पणी करे तो अच्छा हैं।
9. मुसलमानों और ईसाईयों द्वारा प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन करने को डॉ अम्बेडकर गलत मानते थे। आज अधिकतर दलित चिंतक केवल नाम से हिन्दू हैं। वे धर्म परिवर्तन करने वालों का कभी विरोध नहीं करते और उनका खुला समर्थन करते हैं। इस प्रकार से उन्होंने डॉ अम्बेडकर को भी ठेंगा दिखा दिया।
10. कुछ राजनीतिक दल दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कवायद में नारे लगाते हैं। डॉ अम्बेडकर द्वारा अपनी पुस्तक थॉट्स ओन पाकिस्तान में इस्लाम की मान्यताओं द्वारा जातिवाद की समस्या का समाधान होने का स्पष्ट निषेध किया था। डॉ अम्बेडकर ने पाकिस्तान बनने पर सभी दलितों को पाकिस्तान छोड़कर भारत आकर बसने के लिए कहा था। क्यूंकि उन्हें मालूम था की इतिहास में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिन्दू-बौद्ध समाज पर कैसे कैसे अत्याचार किये हैं। दलित चिंतक राजनीतिक तुच्छ लाभ के लिए मुस्लिम नेताओं के हाथ की कठपुतली बन डॉ अम्बेडकर की अवमानना करने से पीछे नहीं रहते।
यह कुछ उदहारण हैं। आपको जितने भी वैदिक धर्म-देश और जाति के विरोध में देश में कार्य दिखेंगे उसमें भेड़ की खाल में भेड़िये आसानी से नज़र आ जायेगे। आईये जातिवाद का नाश कर एक आदर्श समाज का निर्माण करे। जिसमें सभी एक दूसरे के साथ भ्रातृवत व्यवहार करे।
डॉ विवेक आर्य

'International Women's Day' - A Day also to remember Maharishi Manu and Maharishi Dayananda Saraswati - Champions of women's upliftment.

'International Women's Day' - A Day also to remember Maharishi Manu and Maharishi Dayananda Saraswati - Champions of women's upliftment.
Contribution of Arya Samaj in Social Reforms and Extensive Use of original and authentic Manusmriti (without interpolations) in women's empowerment and raising their social and educational status.
Women of India in particular should express their deep debt of gratitude to Swami Dayananda(1824-1883) Saraswati who made a significant contribution for their emancipation and empowerment. On the authority of Vedas as well as Manusmriti (without interpolations), he strongly pleaded for restoring the status of women which they enjoyed during Vedic times. Swamiji quoted extensively from Vedas and Manusmriti in his works to carry out crusade against obnoxious practices and to bring about social reforms specially in the areas of education of women. It was mainly the spirit of Maharishi Dayananda and the various guiding principles, such as, woman is not a slave but a comrade propounded by Maharishi Manu in Manusmriti(sans interpolations) which were the main force behind various reform programmes of Arya Samaj relating to women empowerment as well as Dalit upliftment. It is pertinent to point out here that in this stupendous task Arya Samaj missionaries had to undertake lot of open debates with the orthodoxy and it was the scriptural sanctions of the Vedas and Manusmriti versus (without interpolations) which stood by them in winning over their adversaries.
Was Manu against women? The answer is 'Certainly Not'. The well known German Philosopher, Nietzsche was highly impressed by Manu and paid him rich tributes for showing reverence to women. At one place Nietzche says " I know of no book in which so many delecate things are said of woman as in the Law Book of Manu."
INFLUENCE OF MANU SMRITI WORLDWIDE
Dr.Kewal Motwani in his Ph.D.thesis for Harvard University on MANU DHARAM SASTRA - A SOCIOLOGICAL AND HISTORICAL STUDY (published by Ganesh & Co.(Madras) Pvt.Ltd., 1958 edition) has gone into depth with regard to impact of Manu Smriti world wide.Chapters III, IV and V of the above book illustrate the influence of Manu on the countries of Far East, India, West Asia and Europe, East and South Asia respectively. Dr.Motwani says "Manu belongs to no single nation or race, he belongs to the whole world. His teachings are not addressed to an isolated group, caste or sect, but to humanity." "Manu does not belong to the dead past of some forgotten antiquity, but is a living force in the life of every civilised human being that breathes on the face of this earth today". "Thus, judged from a purely pragmatic point of view, Manu is the only Teacher among the elect of the human race, whose teachings have done the greatest good, to the greatest number of people, over the largest period of time. But this phase of human history has escaped the attention of academic historians and in vain shall be our search for even a hint of it in the history text-books, now in use in schools, colleges and universities throughout the world."
Mr.Motwani mentions at page 232 of the above book"In 1932, a Japanese bomb blew off a part of the CHINESE WALL in Mangolia, Underneath the Wall, deep down in the earth, lay a canister, containing a valuable document relating to a phase of civilization of China in a remote past. The history of the 'manuscript' was given by the author which was secured by Sir Augustus Fritz George and shifted to British Museum, London. Sir Wallis Budge opined that "manuscript was of even greater value than the Codex Siniaticus. Sir Wallis further mentioned "In the manuscript, I find direct references to the Laws of Manu which were first written in India in the Vedic language ten thousand years ago."
India being the custodian of Manu's teachings as Dr.Motwani says is under special obligation to resuscitate his spirit and vision.
Since Lot of people have misconceptions and misgivings about Maharishi Manu and interpretation of Manusmriti, I think a time has come when spurious interpolations on the basis of thorough research should be removed from Manusmriti as various scholars of Arya Samaj have done in the last over 150 years and came out with several editions of Vishudh Manusmriti. Arya Samaj made Vishudh Manusmriti(without interpolations) as a major weapon to carry out its social reform programmes relating to upliftment of downtrodden classes and women. Contrary to the traditional belief, today women students in all Arya Samaj Kanya Gurukuls do Ved Path, wear Yajyopavit(holy thread) and conduct Yajnas. Dr.Urmila Rustagi and Dr.Sudesh Narang in their book "Manu/Manusmriti an Appraisal" pub.by J.P. Publishing House, Delhi have written extensively on independence of woman and her right to Vedic education.
THE POSITION OF WOMEN IN THE MANUSMRITI
Excerpts from the book 'Opposition to Manu Why?' By Dr.Surendra Kumar, former Principal, Govt.College Gurgaon/presently V.C., Gurukul Kangri University, Haridwar. Dr.Surendra Kumar is also the author of Vishudha Manusmriti (Without Interpolations) published by Arsh Sahitya Prachar Trust,Khari Baoli, Delhi):
Women Held in Highest Esteem
"It is clear that the internal evidence of the Manusmriti that the anti women picture of Manu presented by some is baseless and contrary to facts. The provisions concerning women in Manu have been inspired by his sense of respect, justice and goodwill and his concern for their security and equality with men. Here are some facts of evidence in support:-
Maharshi Manu is the first great man of the world to have given the society the highest ideal about women which adds remarkably to the dignity, status and self respect of women.
Yatra Narestu pujyantey ramantey tatra devata
Yatreta too na pujyantey sarva tatrafla kriya. (Manusmriti 3-56)
The correct meaning of the verse is: Gods (who stand for divine qualities, good deeds, sweet nature and blessings for the family, for obedient children and other coveted possessions) make their abode in the household in which women are treated with respect. However, where they are not shown any respect, all ventures and undertakings end in a smoke. There can be no better proof to show the reverential attitude of Manu towards women than the extremely respectful and beautiful adjectives used for women by him. He says that women in the family are instrumental in bringing good luck to the household, they are respectable; they are illuminating by their very presence and decorative in appearance they are a symbol of prosperity they are the mistresses and the sole managers of the household; they are heavenly in influence; they are conducive to a smooth worldly journey (ix-11,26,28;v-150). He adds that people wishing for their welfare must respect women, and that those families and households in which women have to suffer slights, go to dogs. According to him the real happiness and welfare of a household lies in the happiness and welfare of the women in it (Manu Smriti III-55-62). So he instructs the husband and the wife in the household to remain happy and satisfied with each other, not to act against each other and not to indulge in any such activity as may lead to their separation (Manu Smriti IX-101-102). Only one verse will suffice to bring out Manu's feelings:
Prajnarth mahabhaga pujhra grihdipatya
Istriya triyashc geheyshu na visheshosti kashchan (Manu Smriti 1-26).

It means that women bring good luck to a household through procreation; they deserve respect and reverence; they irradiate the house with their presence. In fact there is no difference between the godess of wealth and women."
2. SON AND DAUGHTER HAVE EQUAL STATUS
"Those unacquainted with Manu's code will be pleasantly surprised to be informed that Manu is the first law-giver to have ordained that son and daughter enjoy an equal status in the family. He has given this concept a constitutional validity. He says: “putrena duhita sama” (Manu Smriti 9-130) which means that daughter is at par with son in every respect."
3. SON AND DAUGHTER:EQUAL PARTNERS IN PARENTAL PROPERTY.
"Manu regards both the son and the daughter as equal heirs to parental property. This opinion finds a mention in the Manusmriti in ChapterIX-130,192. This very view has been quoted in the Nirukta as follows:
Avishashna putrnam dayo bhavti dharmata
Mithunana visergadoo manu svembhuvobriveet(Nirukta iii-1-4)
It means in the beginning of the creation Svayambhu Manu ordained and decleared that there is equal right for son and daughter in the ancestral parental property. Manu has infact enhanced the importance of girls in the house-hold by laying down that only daughters (and not sons) are entitled to inherit the personal property of the mother(Manusmriti IX-131)".
4. SPECIAL INSTRUCTIONS FOR THE SAFETY OF WOMEN'S PROPERTY
"Manu has ensured that nobody usurps the property of women under the impression that they are weaklings. He has laid down that people making such attempts, howsoever close they may be to the concerned woman, should be given the same punishment as has been presctribed for thieves (Manusmriti IX-212, III-52, VIII-2,29)."
5. STRINGENT PUNISHMENT FOR CRIMES AGAINST WOMEN
"Manu has tried to ensure the security of women by laying down that the kidnappes and killers of women should be awarded capital punishment and the rapists be banished after being tortured (VIII-323, IX0232, VIII-352). Manu has given clear instructions for the redressal of all difficulties, big or small, facing women. Men have been instructed not to quarrel with mother, wife and daughter (IV-180). There is a provision for punishment to persons levelling false charges against them; to those deserting women even when they are innocent; to those who fail to fulfil conjugal obligations towards women (VIII-275,389, IX-4)."
6. MARITAL FREEDOM TO WOMEN
"Manu has an ideal approach on the subject of marriage of women. He has conceded to her the freedom of marrying a man of her choice who in her opinion is the most suitable for her (IX-90,91). He has allowed remarriage of a widow and has also sanctioned Niyoga(temporary attachment to a member of the opposite sex for a definite purpose such as procreation, etc)(IX-176,56-63). Marriage is a symbol of affection and respect for girls and, therefore, according to Manu dowry in any form is highly improper and hence forbidden(III-51-54). Earnestly wishing for happiness to women he suggests that it is better to remain unmarried lifelong than to marry a wicked and vicious man (IX-89)."
7. JOINT OBLIGATION AND WOMAN'S INDISPENSABILITY IN THE PERFORMANCE OF RELIGIOUS RITES.
"The participation which women get in every field of activities of men in India as sanctioned by Vedic religion is of unique nature and is not to be seen elsewhere. Here no religious rite, no social ceremony and no household venture can be accomplished without women being associated. Manu also has the same creed to propound. So he entrusts the job of accomplishing religious rites and ceremonies to women, and gives directions that such rites should not be carried out without their participation. (IX-11,28,96)/ During Vedic period women enjoyed all rights such as the right to study the Vedas, right to the wearing of YAJNOPAVITA(sacred thread), right to doing YAJNA(sacrificial ceremony), etc. They used to embellish the position of Brahma (the director) in the yajna ceremony. They would acquire the position of seers (exponents) of Vedic hymns after having received high education. Manu who regarded Vedas as of AXIOMATIC AUTHORITY in all religious matters was a great advocate of high education and all religious rights for women as ordained in the Vedas. That is why he rules that all the rights relating to women should be carried out under their own supervision with the chanting of Vedic hymns by them (II-4,III-28)."
8. PREFERENCE TO WOMEN
"The admirers of 'Ladies first' culture will be gratified to learn that Manu has instructed that we should step aside to make way for women on a priority basis. He also rules that the newly married women, the unmarried girls, ailing expectant and old women should be provided food first and then alone should husband and wife in the family take meals together(II.138, III.114, 116). All these provisions in Manu indicate the high degree of sense of respect and affection he had for womenfolk."
9. MANU NOT IN FAVOUR OF UNRESTRAINED FREEDOM TO WOMEN
"It will be only pertinent to clarify in this context that Manu is an admirer of virtues and a great detractor of vices. So he accords all respect to the virtuous ladies and provides for all punishment to the vicious women. One of the characteristics of these provisions of Manu is that he is not in favour of unlimited liberty for women which may make her unsafe and consequently be extremely harmful to her. So he has warned women against jumping the security cover provided to her by the father or by the husband or by the son because such a misadventure on her part can bring a bad name to two families - one her parents' and the other her in-laws' (V-149,IX-56). However, by no means does it mean that Manu is anti-women's lib. This only implies that the first social requirement of women is security which may be provided to her by the State's law and order machinery or some man or by her own valour. Her own valour, more often than not, fails to protect her in a world dominated by sensual dacoits have required male protection and patronage. However, it will not be proper to assess Manu's contentions in the present day political perspective. Today there is a law-enforcing government and yet thousands of women have been criminally assaulted and thus compelled to go to dogs. Rape and subsequent killing of women is the order of the day and the rule of law is rendered ineffectual. The real import of Manu's words can be realized vis-a-vis a situation when there is looseness in administration consequent upon a change in the system of government following violent incidents. It is in such a situation that Manu's words prove to be perfectly true.
This analysis make it clear that the provisions made by Manu are neither anti-shudra nor anti women. They are in fact, extremely fair, just, impartial and even -handed. Manu has said nothing objectionable, nothing exceptionable."
E - SPURIOUS INTERPOLATIONS IN THE MANUSMRITI AND THEIR SCIENTIFIC EXAMINATION
"The aforementioned discussion leads us to the inevitable conclusion that the Manusmriti does have in it a large number of verses carrying noble canons and commandments. However, it is also a fact that the extremely objectionable verses which anti-Manu writers have been quoting and underscoring are imputed to Manu and his Manusmriti. This makes the scripture a carrier of paradoxes. If the later type of verses were also accepted as really from the original Manusmriti it would mean that the book has in it on the one side just and fair rules and regulations and unfair and unreasable and hence despicable proposals and postulates on the other. The crucial question is:Is it an acceptable position that a book should originally carry in it such paradoxes and self contradictory statements and commandments? When there are no apparently self contradictory statements in the composition of even ordinary writers of average intelligence how can there be such paradoxical statements in the write-up of such a legal luminary and religiously righteous sage. A plain, simple and introvertible explanation to this is one and only one: The just and noble laws are those giving the consideration to a man's potentialities, actions and abilities are originally written by Manu and those against these principles, and putting a premium on partial, unreasonable and unjust approach are interpolations added to the Manusmriti from time to time designed to suit the vested interests of interpolators. This explanation gets upheld as correct and just if we make a reference to Manusmriti itself. The original verses are contextually relevant and written in a sober style which mataches with the principles of due consideration for an individual's merits, actions and potentialities so clearly upheld by Manu. The interpolated verses are in a different style and are not only irrelevant and out of context but also thematically discordant. Thus we can determine which verses are original and which ones are interpolated. In brief can be stated the following as guiding principles for telling the original from the interpolated:-
Again the verses quoted in this article suggesting that women should be given due regard, should enjoy social freedom, have equality with men and have the right to education including the right to study the Vedas are original and those negating these postulates are interpolations.
Some readers may be interested in going deep into the question of which verses are original and why, which verses are subsequent motivated additions and why. They are urged to refer to the Manusmriti(Complete) in Hindi published by the Arsh Sahitya Prachar Trust, 455-Khari Baoli, Delhi. This book carries an appraisal of the book on the strength of arguments based on internal evidence and tells the original verses from the interpolated ones on the basis of universally acceptable yardsticks. This edition of the Manusmriti will prove very useful in securing information regarding the original subjects taken up in the scripture for discussion, regarding the interpolated verses clearly stating why they are decisively and conclusively interpolated and not original, regarding some of the misgivings about the Manusmriti and their resolution in a convincing manner. THIS IS THE LATEST RESEARCH ON INTERPOLATIONS IN THE MANUSMRITI. It is essential to make it clear here that the interpolated verses are no longer a subject of controversy. Instead they have been accepted as such decisively, conclusively and finally. It is a fact of history supported by written evidences that they have been made motivated additions to the ancient Sanskrit literature from time to time. The Mahabharta which originally carried only 10,000 verses has gradually become a stupendous volume of about one lakh verses. Today's Ramayana carries hundreds of more shlokas and those in a hand-written version which is about one thousand years old and which is still lying preserved in the Nepalese archives. The Manusmriti is also sailing in the same boat. As a matter of fact a larger number of additions, alterations and interpolations have been carried out in it. The reason obviously is that it is more related and relevant to the day-to-day conduct and concerns of human beings. So it was subjected to manipulations by vested interests. The scholars of all shades and hues are unanimous on the issue of interpolations in the Manusmriti. The commentaries available on it bear a direct testimony to this fact. The later-day commentaries carry a larger number of verses. There are 170 more verses in Kullukabhatta’s commentary (12th century) than those found in that of Meghatithi (9th century). Till than the extra verses in the former had not been assimilated in the main body of the commentary and so had to be given in large brackets. There is a variation in the number of verses found in other commentaries."
Note: Dr.Surendra Kumar has attempted to pin point the interpreted shlokas with reason and logic on the basis of 7 measures and held 1471 verses as interpolated out of 2685 verses of Manusmriti. After deletion of interpolations he came out with two editions, one Vishudha Manusmriti with 1214 uninterpolated verses and the other present Manusmriti of 2685 verses.
British researchers like Wooler, J.Jolly, Keith and MacDonell and the Encyclopaedia Americana also accept that the Manusmriti carries a large number of interpolations.
"Maharshi Dayanand, the founder of the Arya Samaj regards only the original and interpolations-free Manusmriti as authentic. He has pointed out some interpolated verses and has urged scholars to identify other such verses for expurgating this great work.
Mahatma Gandhi in his book entitled ‘Varna Vyavastha’ accepts that the objectionable verses found in the Manusmriti are subsequent motivated insertions. Dr.Radhakrishnan, Rabindranath Tagore and other national leaders and scholars too are of the same opinion.
Hence the need of the hour is hour is that the original Manusmriti should be reckoned as authentic, and the opposition to Manu on the basis of interpolated shlokas should be rebutted because Manu and Manusmriti are worth taking pride in and not something condemnable. We should not drag such invaluable and important heritage of our country in the dirty politics of vested interests, and thus should not desecrate it by subjecting it to indignities and insults.”
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The teachings of Vedas and Maharishi Manu had a great impact on Swami Dayananda Saraswati and on account of their scriptural authority that he could continue his tirade against obnoxious customs and evil practices. Dayananda a great Vedic scholar who had understood the dominating spirit of Manusmriti(without interpolations) could successfully debate with the orthodoxy - the so called custodians of Vedic Dharma and meet them on on their own ground.
Swami Dayananda's attempts to relieve the cribbed and cabined womanhood of India were fully backed by his inspirational Vedic knowledge which provide for a lofty position to women both at home and in the society. Manusmriti (3-57) says that the society in which women are depressed is soon vanished. Society where women are free from suppression always moves forward;
Shochanti jamyo yatra vinash utuashu,tatkulum,
na shochanti tu yatritaa vardhatey tadhi sarvada

(Y.K. Wadhwa)

बौद्धिक आतंकवाद का उपाय



बौद्धिक आतंकवाद का उपाय

आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख़ खान, इमरान हाश्मी, इमरान खान, अमिताभ बच्चन, रितिक रोशन, रणबीर कपूर,  सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली, राहुल द्रविड़, वीरेंदर सहवाग, धोनी, विराट कोहली, रैना, जडेजा।

इनके बारे में किसी भी हिन्दू लड़के- लड़कियों से पूछ लो। टेप-रिकॉर्डर के समान पूरा इनसाइक्लोपीडिया बता देंगे।

बप्पा रावल, राजा भोज, राणा कुम्भा, राणा सांगा, वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, राज राजा चौला, कृष्ण देव राय, वीर दुर्गादास राठोर,महाराजा सूरजमल, बन्दा बैरागी, बाजीराव पेशवा,राजाराम जाट,गोकुला जाट, वीर छत्रसाल,राजा सुहैल देव पासी

इन सभी महान धर्मरक्षकों के नाम तक हिन्दुओं ने नहीं सुने होंगे। उनके महान जीवन के विषय में उनकी जानकारी होना तो कल्पना के समान हैं।

इसे बौद्धिक आतंकवाद कहते है। इस आतंकवाद का आरम्भ करने वाला हमारे देश का प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू था। गौरी, गजनी और अकबर को महान और शिवाजी को लूटेरा बताने वाली उसकी कम्युनिस्ट टोली ही थी।  

 मेरे विचार से इन सभी महान आत्माओं की संक्षिप्त जीवनियों को सरल भाषा में लिख कर बाल साहित्य के रूप में प्रकाशित कर हर हिन्दू युवा को पढ़ानी चाहिए।

सुप्रभात मित्रों

डॉ विवेक आर्य 

कम्युनिस्ट पोल प्रकाश



कम्युनिस्ट पोल प्रकाश

1. अपने को आधुनिक, सभ्य दिखाने के लिए माँसाहार, चरित्रहीनता, नशाखोरी के पक्ष में कुतर्क देना।
2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बहुसंख्यक लोगों की मान्यताओं का तिरस्कार करना एवं अल्पसंख्यक की मान्यतों का समर्थन करना।
3. अपनी गलती का दोष ईश्वर अथवा बहुसंख्यक हिन्दुओं अथवा देश की सरकार को देना। जैसे भूकम्प आने पर ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना।
4. मानसिक रोग जैसे समलैंगिकता जैसे पशु समान व्यवहार को सही ठहरने के लिए कुतर्क देना।
5. वेद आदि धर्मग्रंथों के सत्य अर्थ को न समझ कर उनके गलत अर्थ को प्रचारित कर उनकी निंदा करना।
6. NGO बनाकर उसके चंदे से दंगाई मुसलमानों को शांतिप्रिय एवं हिन्दुओं को अत्याचारी सिद्ध करने का प्रयास करना।
7. NGO के माध्यम से देश की प्रगति को पर्यावरण एवं प्रदुषण के नाम पर रोकने का प्रयास करना।
8. विश्वविद्यालयों में वोट बैंक की राजनीती और मुस्लिम तुष्टिकरण एवं नास्तिकता को बढ़ावा देना।
9. देश की प्राचीन महान सभ्यता को जंगली एवं गंवार बताना।
10. प्राचीन महापुरुषों जैसे श्री राम, श्री कृष्ण आदि को मिथक एवं कल्पना बताना।
11. हिन्दू धर्म से सम्बंधित अंधविश्वासों को बड़ा चढ़ा कर बताना एवं अन्य मत-मतान्तर से सम्बंधित अंधविश्वासों पर मौन धारण कर जाना।
12. देश को तोड़ने के लिए विदेश से चंदा लेकर देश विरुद्ध कार्य करना।
13. देश के क्रांतिकारियों में साम्यवादी विचारधारा वाले क्रांतिकारियों को असली और गैर साम्यवादी विचारधारा वाले क्रांतिकारियों को नकली बताकर उनमें भेदभाव करना।
14. प्रचार तंत्र द्वारा युवाओं को भ्रमित करना।
15. जिस मिटटी में जन्में, जिस देश का अन्न खाया उस देश को गाली देना और विदेशियों के तलवे चाटना।
डॉ विवेक आर्य

Manu Smriti and Caste System: An Analysis


Manu Smriti and Caste System: An Analysis
Most of readers might be having opinion about Manu Smriti that it supports Caste System. It says that a Brahmin is superior to a Shudra. Many will advocate to burn such text as it supports Caste System. Let us inquire into the common unfavorable perception that does the Manu Smriti supports casteism?
Swami Dayanand, the great Vedic scholar of the 19th Century, writes: “I believe in that part of Manu Smriti which is not interpolated (appended later) and is in accord with the Vedas.” He concludes that the Manu Smriti we read today is not as originally laid down by Swayambhu Manu, the first Chief of Humanity. As it now is, he found the text as self-contradictory and against the values espoused in Vedas, and hence injudicious. He therefore rejects those prejudicial texts which advocate discrimination against populations with alleged inferior status.
Truth is that Manu proposed Varn Vyastha — which was based on merit and not on account of one’s birth.
Here are the verses from Manu Smriti which says that Varna is based on qualification not on the basis of Birth.
2/157. As an elephant made of wood, as an antelope made of leather, such is an unlearned Brahmana; those three have nothing but the names (devoid of virtues respective to their kind).
2/28. This (human) body is made fit for (union with) Brahman by study of the Vedas, by vows, by burnt oblations, by (recitation of) sacred texts, by (acquisition of the) threefold sacred science, by offering (to gods, sages and manes), by (procreation of) sons, by great sacrifices, and by (the Srauta) rites
(The above texts lays the qualifications to be acquired, with great dedication and effort at specified works, in order to become a Brahmin, and not merely by being born to a Brahmin father.)
The varn of a person (caste or status in society) was decided after completion of his education.
Two births were considered for a person in Vedic period : first, when he was born to his parents, and, next, when he completed his education with due thoroughness. It was after second birth (twice born) that the varn of person was determined.
The following text from Manu Smriti makes it even more clear.
2/148. But that birth which a teacher acquainted with Vedas entire, in accordance with the law, procures for him (the student) through the Savitr (Sun), is real and exempt from his birth, age or death.
2/146. Between him to whom one is physically born and him who gives (the knowledge of) the Vedas, the giver of the Veda is the more venerable father; for birth through arising in the knowledge of the Veda (ensures) eternal (reward) both in this (life) and that (afterlife).
A person who remained uneducated and devoid of the knowledge of Vedas was considered a Shudra.
That is, the Shudra varn was not based on birth but on merit.
10/4. Brahmana, Kshatriya and the Vaisya castes (Varna) are twice-born (educated) but the fourth, the Shudra, has one birth only; there is no fifth (caste).
2/172. He who has not been initiated with teaching of the Vedas is like a Shudra.
Manu also advises not to insult a person of lower Varna.
4/141. Let him not insult those who have redundant limbs or are deficient in limbs, nor those destitute of knowledge, nor very aged men, nor those who have no beauty or wealth, nor those who are of low birth.
Why Manu started Varn Vyastha?
1/31. But for the sake of the prosperity of the worlds he caused the Brahmana, the Kshatriya, the Vaisya and the Shudra varn origin in form of the body of the society : as its mouth, its arms, its thighs and its feet, respectively.
(Only the ignorant consider the Shudra as being originated from the feet of god.)
1/87. But in order to protect this universe He (God), the most resplendent one, assigned separate (duties and) occupations to those as done in a body by mouth, arms, thighs, and feet.
1/88. To Brahmanas He assigned teaching and studying (the Vedas), sacrificing for their own benefit and for the welfare of others, giving and accepting (of alms).
1/89. The Kshatriya he commanded to protect the people, to bestow gifts, to offer sacrifices, to study (the Vedas), and to abstain from attaching himself to sensual pleasures;
1/90. The Vaisya to tend cattle, to bestow gifts, to offer sacrifices, to study (the Vedas), to trade, to lend money, and to cultivate the land.
1/91. One occupation only the Lord prescribed to the Shudra : to serve these (other) three castes.
Manu considered anyone who is without knowledge or capacity for skilled deeds as a Sudra; so any uneducated person is fit only for being in the service, under the guidance, of others who have the requisite knowledge and skills.
Isn’t that how we are organised even today ?
Manu also advises people to exert in order to acquire a higher varna, and change his or her allotted Varna.
The advisory leaves varn vyastha changeable, fluid, and not based on birth but on merit alone.
10/65. (Thus) a Shudra attains the rank of a Brahmana, and (in a similar manner) a Brahmana sinks to the level of a Shudra; and know that it is the same with the offspring of a Kshatriya or of a Vaisya.
9/335. (A Shudra who is) pure, accompanies his betters and is gentle in his speech, free from pride, and always seeks a refuge with Brahmanas, attains a higher Varna (Brahmana, Kshatriya or Vaisya) based on his qualities.
4/245. A Brahmana who always connects himself with the most excellent (ones), and shuns all inferior ones, (himself) becomes most distinguished; by an opposite conduct he becomes a Shudra.
Is it not said : the company one keeps makes a man better or worse ?
2/103. But he who does not worships in morning, nor in the evening, is like a Shudra and he shall be excluded, just like a Shudra, from all the duties and rights of an Arya (one of noble qualities).
2/168. A twice-born man who, not having studied the Vedas, applies himself to other (and worldly study), soon falls, even while living, to the condition of a Shudra; and so do his descendants (after him).
2/126. A Brahmana who does not know the form of returning a salutation, they must not be saluted by a learned man; they must be considered as a Shudra.
A Sudra too can teach the other castes.
2/238. He who possesses faith may receive pure learning even from a man of lower caste (Shudra), the highest law even from the lowest, and an excellent wife even from a base family.
2/241. It is prescribed that in times of distress (a student) may learn (the Vedas) from one who is not a Brahmana; and that he shall walk behind and serve (such a) teacher, as long as the instruction lasts.
Superior rights given by Manu to shudras.
2/136. Wealth, kindred, age, (the due performance of) rites, and, fifthly, sacred learning are titles to respect; but each later-named (cause) is more weighty (than the preceding ones).
2/137. Whatever man of the three (higher) castes possesses most of those five, both in number and degree, that man is worthy of honour among them; and (so is) also a Shudra who has entered the tenth (decade of his life).
In above text Manu gives respect to any Shudra who is in tenth decade of life.
That is, anybody who lives long enough transcends the varna vyavastha.
3/116. After the Brahmanas, the kinsmen, and the servants have dined, the householder and his wife may afterwards eat of what remains.
Householders are advised by Manu to dine after sudras or the servants !
8/335. Neither a father, nor a teacher, nor a friend, nor a mother, nor a wife, nor a son, nor a domestic priest must be left unpunished by a king, if they do not keep within their duty.
8/336. Where another common man would be fined one karshapana, the king shall be fined one thousand; that is the settled rule.
8/337. In (a case of) theft the guilt of a Shudra shall be eightfold, that of a Vaisya sixteen fold, that of a Kshatriya two-and-thirtyfold …
8/338. … that of a Brahmana sixty-fourfold, or quite a hundredfold, or (even) twice four-and-sixtyfold; (each of them) knowing the nature of the offence.
Manu advises strict punishment for a higher varna : punishing the Brahman many times more than a lower varn, say, a Shudra.
The above text is evidence of Manu’s unbiased social hierarchy and structure.
He considered a behavioural error as being more unpardonable in case of the learned one than for the ignorant.
Following are the examples of changing of varn vyastha in past.
Rishi Brahma, son Manu Swayambhu himself, was born to a Brahmana but became a Kshatriya king.
Manu’s eldest son, Priyavrat, became a king, a Kshatriya.
Out of Manu’s ten sons seven became kings while three became Brahmanas. Their names were Mahavir, Kavi and Savan. (Ref Bhagwat Puran Chap. 5)
Kavash Ailush was born to a Shudra and attained the highest varna of a Rishi. He became mantra-drashta to numerous hymns in Rig-Veda : 10th Mandal.
Jabala’s son, Satyakaam, born from unknown father became Rishi by his qualities.
Matang became a Rishi after his birth in low varna.
Maharishi Valmiki was born in inferior varna and became a Rishi.
Mahatma Vidur was born to a Dasi (maid) and became the prime minister to king Dhritarastra.
Raja Vishvanath, a Kshatriya, became a Brahmana – Rishi Vishwamitra.
There are many examples of varn vyastha to inferior level.
Ravan king of Lanka was son of a Brahmana Rishi Pultasya became a rakshasa.
Shri Ram’s ancestor, Raja Raghu’s son, Pravidh, was declared of inferior varna due to lack of qualities.
Shri Ram’s ancestor, Raja Samar’s son, Asmanjas, was declared a Shudra due to his bad qualities.
Thus the real Manu Smriti supports Varn Vyastha based on Merit not on the basis of Birth. The adulterated part is thus reject able.
Dr Vivek Arya