Wednesday, June 22, 2016

वेद को छोड़ने के दुष्परिणाम



वेद को छोड़ने के दुष्परिणाम 
*1.मनमानी पूजा पद्धतियां-

पिछले 10-15 वर्षों में हिंदुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिंदू धर्म के लोगों को पूरी तरह से गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया, जो आज भी जारी है। हिंदू धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को व्यक्ति एक चौराहे पर खड़ा पाता है। समझ में नहीं आता कि इधर जाऊँ या उधर।भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और विकास होता है, जोकि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति, चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ विकसित होती है। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत, कथावाचक या पोंगा पंडितों को पूजने का प्रचलन बढ़ता है।
*2. धर्म का अपमान 
आए दिन धर्म का मजाक उड़ाया जाता है, मसलन कि किसी ने लिख दी लालू चालीसा, किसी ने बना दिया अमिताभ का मंदिर। रामलीला करते हैं और राम के साथ हनुमानजी का भी मजाक उड़ाया जाता है। राम के बारे में कुतर्क किया है, कृष्ण पर चुटकुले बनते हैं। दुर्गोत्सव के दौरान दुर्गा की मूर्ति के पीछे बैठकर शराब पी जाती हैं आदि अनेकों ऐसे उदाहरण है तो रोज देखने को मिलते हैं। भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं किंतु अब तो कथावाचक चौराहों पर हर माह भागवत कथा का आयोजन करते हैं। यज्ञ के महत्व को समझे बगैर वेद विरुद्ध यज्ञ किए जाते हैं और अब तमाम वह सारे उपक्रम नजर आने लगे हैं जिनका सनातन धर्म से कोई वास्ता नहीं है।
*3 .बाबाओं के चमचे 
अनुयायी होना दूसरी आत्महत्या है।'- ॐ को छोड़कर आज का युवा अपने-अपने बाबाओं के लॉकेट को गले में लटकाकर घुमते रहते हैं। उसे लटकाकर वे क्या घोषित करना चाहते हैं यह तो हम नहीं जानते। हो सकता है कि वे किसी कथित महान हस्ती से जुड़कर खुद को भी महान-बुद्धिमान घोषित करने की जुगत में हो। लेकिन कुछ युवा तो नौकरी या व्यावसायिक हितों के चलते उक्त संत या बाबाओं से जुड़ते हैं तो कुछ के जीवन में इतने दुख और भय हैं कि हाथ में चार-चार अँगूठी, गले में लॉकेट, ताबीज और न जाने क्या-क्या। गुरु को भी पूजो, भगवान को भी पूजो और ज्योतिष जो कहे उसको भी, सब तरह के उपक्रम कर लो...धर्म के विरुद्ध जाकर भी कोई कार्य करना पड़े तो वह भी कर लो।
*4. धर्म या जीवन पद्धति 
हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है- ये वाक्य बहुत सालों से बहुत से लोग और संगठन प्रचारित करते रहे हैं। इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और जैन सभी सम्प्रदाय है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और ईश्वर है, लेकिन हिंदुत्व तो धर्म नहीं है। जब धर्म नहीं है तो उसके कोई पैगंबर और अवतारी भी नहीं हो सकते। उसके धर्मग्रंथों को फिर धर्मग्रंथ कहना छोड़ो, उन्हें जीवन ग्रंथ कहो। गीता को धर्मग्रंथ मानना छोड़ दें? धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। क्यों संत-महात्मा गीताभवन में लोगों के समक्ष कहते हैं कि 'धर्म की जय हो-अधर्म का नाश हो'?
सच में धर्म की तरफ आना चाहते हो तो सत सनातन वैदिक धर्म की ओर चलो ।

*5. मनमानी व्याख्या के संगठन 
पहले ही भ्रम का जाल था कुछ संगठनों ने और भ्रम फैला रखा है उनके अनुसार ब्रह्म सत्य नहीं है शिव सत्य है और शंकर अलग है। आज आप जहाँ खड़े हैं अगले कलयुग में भी इसी स्थान पर इसी नाम और वेशभूषा में खड़े रहेंगे- यही तो सांसारिक चक्र है। इनके अनुसार समय सीधा नहीं चलता गोलगोल ही चलता है। इन लोगों ने वैदिक विकासवाद के सारे सिद्धांत और समय व गणित की धारणा को ताक में रख दिया है। एक संत या संगठन गीता के बारे में कुछ कहता है, तो दूसरा कुछ ओर। एक राम को भगवान मानता है तो दूसरा साधारण इंसान। हालाँकि राम और कृष्ण को छोड़कर अब लोग शनि की शरण में रहने लगे हैं।वेद, पुराण और गीता की मनमानी व्याख्याओं के दौर से मनमाने रीति-रिवाज और पूजा-पाठ विकसित होते गए। लोग अनेकों संप्रदाय में बँटते गए और बँटते जा रहे हैं। संत निरंकारी संप्रदाय, ब्रह्माकुमारी संगठन, जय गुरुदेव, गायत्री परिवार, कबिर पंथ, साँई पंथ, राधास्वामी मत आदि अनेकों संगठन और सम्प्रदाय में बँटा हिंदू समाज वेद को छोड़कर भ्रम की स्थिति में नहीं है तो क्या है?संप्रदाय तो सिर्फ दो ही थे- शैव और वैष्णव। फिर इतने सारे संप्रदाय कैसे और क्यूँ हो गए। प्रत्येक संत अपना नया संप्रदाय बनाना क्यूँ चाहता है? क्या भ्रमित नहीं है आज का हिंदू?
*वेद बुलाते हैं तुम्हें 
विद्वानों अनुसार 'वेद' ही हैं हिंदुओं के धर्मग्रंथ। वेदों में दुनिया की हर बातें हैं। वेदों में धर्म, योग, विज्ञान, जीवन, समाज और ब्रह्मांड की उत्पत्ति, पालन और संहार का विस्तृत उल्लेख है। वेदों और उपनिषदों का सार है सत्यार्थप्रकाश।


वेद वाणी



*वेद वाणी*
*प्रातः जागने वाला प्रबुद्ध होता है ,उसे सब स्नेह करते है (ऋ० १/६५/५ )*
*हे सोम ! तेरा सखा कभी दुखी नहीं होता (ऋ० १/९१ /८ )*
*अपने ज्ञान के प्रकाश से हमारे अज्ञान को नष्ट करो ( ऋ० १/९१/२२)*
*प्रभु की संगति( उपासना ) से ह्मारी मति कल्याणी हो (ऋ० १/९४/१)*
*दूर होकर भी वह बिजली की तरह समीप ही चमकता है ( ऋ० १/९४/७)*
*सहनशील पुरुषार्थियो से द्वेषियो को प्रभु दूर कर देता है (ऋ० १/१००/३)*
*विश्वनियन्ता इंद्र सदा हमारा ज्ञानदाता-उपदेशक होवे (ऋ० १/१००/१९)*
*मन्त्र ही सर्वत्र गुरु है (वेद व् विवेक से सब निर्णय लें) (ऋ० १/१४७/४)*
*वह ईश्वर एक है ,सचमुच एक है (अथर्व० १३/४/२०)*
*हम सुने हुए वेदोपदेश के विरुद्ध आचरण न करे (अथर्व० १/१/४)*
*दक्षिणा देने वाले मोक्ष सुख पाते है (ऋ० १/१२५/६)*
*महान सौभाग्य के लिए पुरुषार्थ कर ( यजु० २७/२ )*
*वाणी,धन और शरीर से परोपकार करो (ऋ० २/२/१)*
*हम वैदिक मार्ग से पृथक न हो (ऋ० १०/५७/१)*
*मेरे घर में पवित्र कमाई हो (अथर्व० ७/११५/४)*
*दुष्कर्म करनेवाले सत्य के मार्ग को नहीं तर सकते ( ऋ० ९/७३/६)*
*कंजूस पीछे रह जाते है,दानी आगे बड़ जाता है (ऋ० १०/११७/७)*
*मित्र की सहायता न करने वाला मित्र नहीं होता (ऋ० १०/११७/४)*
*हम श्रेष्ठ सामर्थ्य प्राप्त करे (६/४७/१२)*
*सत्य का मार्ग बड़ा सुगम है ( ऋ० ८/३१/१३ )*
*निरपराध की हत्या बड़ी भयंकर है ( अथर्व० १०/१/२९ )*
*इस संसार में उदासीन मन से मत रहो ( अथर्व० ८/१/९)*
*पापी को दुःख ही मिलता है ( अथर्व० १०/१/५)*
*संतान को मर्यादा में रहना सिखाओ ( अथर्व० ६/८१/२ )*
*मै चोरी का माल ना खाऊ (अथर्व० १४/१/५७)*
*मेरा ह्रदय संताप से रहित हो ( अथर्व० १६/३/६)*
*मै इन्द्रियों का स्वामी बनूँ ( साम० १८३५ )*
*हम विद्वानों का संग करे ( ऋ० ५/५१/१५ )*
*मै जो कुछ बोलूँ मीठा बोलूँ ( अथर्व० १२/१/५८)*
*हे शक्तिपुंज प्रभो! हम निडर बने ( ऋ० १/११/२)*
*उस परमात्मा की मूर्ति नहीं है (यजु० ३२/३ )*
*हे कर्मशील जीव ! तू ओउम का स्मरण कर (यजु० ४०/१५ )*
*हे सर्वज्ञ प्रभो ! आप मेरे जीवन को पवित्र कीजिए ( यजु० १९/३९ )*
*जुआ मत खेलो ( ऋ० १०/३४/१३)*
*वेदी को सजाओ (ऋ० १/१७०/४)*
*कर्म न करने वाला दस्यु है ( ऋ० १०/२२/८)*
*मनुष्य बनो और दिव्य संतानों को जन्म दो (ऋ० १०/५३/६)*
*मनुष्य उस परमात्मा को जानकार ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है ( यजु० ३१/१८)*
*अग्नि से अग्नि जलता है ( साम० ८४४ )*
*समय रूपी घोडा दौड़ रहा है ( अथर्व० १९/५३/१)*
*हे प्रभो ! मै तुझे कदापि न त्यागूँ ( अथर्व० १३/१/१२ )*
*क्रोध मत करो (अथर्व० ११/२/२०)*
*बुरा करने वाले का बुरा होता है ( अथर्व १०/१/५)*
*हजार हाथो से कमा और सैकड़ो हाथो से दान कर ( अथर्व० ३/२४/५)*
*पुत्र पिता का अनुवर्तन करने वाला हो (अथर्व ३/३०/२)*

Sunday, June 19, 2016

मनु स्मृति के अनुसार धर्म-अधर्म की परिभाषा



मनु स्मृति के अनुसार धर्म-अधर्म की परिभाषा

डॉ विवेक आर्य

अम्बेडकरवादी यह जानते हुए भी कि कुछ मूर्खों ने मनुस्मृति में  श्लोकों की मिलावट की थी सृष्टि के प्रथम संविधान निर्माता महर्षि मनु के प्रति द्वेष वचनों का प्रयोग करने से पीछे नहीं हटते। मिलावटी अथवा प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर बाकि सत्य भाग को स्वीकार करने में सभी का हित है। सत्य यह है कि संसार के किसी भी धार्मिक पुस्तक में धर्म -अधर्म की इतनी सुन्दर परिभाषा नहीं मिलती जितनी सुन्दर परिभाषा मनुस्मृति में मिलती है। मनुस्मृति दहन करने वाले निष्पक्ष होकर चिंतन करेंगे तो उन्हीं का अधिकाधिक लाभ होगा।

 मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा

धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९

अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं।
दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म १/१०८
अर्थात सदाचार परम धर्म है।


मनुस्मृति ६/९२ में धर्म के दस लक्षण बताए है तो मनुस्मृति १२/५-७ में अधर्म के भी दस लक्षण इस प्रकार बताए हैं :-

पराये द्रव्यों का ध्यान करना, मन से अनिष्ट चिन्तन करना और तथ्य के विपरीत बातों में निवेश करना - ये तीन मानसिक दुष्कर्म हैं।

कठोर और कटु वचन बोलना या लिखना, झूठ बोलना या लिखना, चुगली खाना या चापलूसी और चुगली करते हुए भाव में लिखना तथा असम्बद्ध प्रलाप करना अथवा सम्बन्ध न होते हुए भी किसी पर दोषारोपण करते हुए लिखना - ये चार वाचिक दुष्कर्म हैं।

वस्तु के आधिकारिक स्वामी द्वारा न दी गई अर्थात् अदत्त वस्तु को ले लेना (यथा चोरी, छीना-झपटी, अपहरण अथवा डाका इत्यादि द्वारा ले लेना), अवैधानिक हिंसा करना (यथा क़ानून अपने हाथ में लेते हुए निर्दोषों की हत्या इत्यादि करना) और परायी स्त्री का सेवन (यथा छेड़छाड़, अपहरण अथवा बलात्कार इत्यादि) करना - ये तीन शारीरिक दुष्कर्म हैं।

इस प्रकार तीन मानसिक, चार वाचिक और तीन शारीरिक मिलाकर कुल दस दुष्कर्म अधर्म के लक्षण हैं। जहां ये विद्यमान होंगे वहां निश्चित रूप से अधर्म का वास होगा।

अतः धर्म और अधर्म की उक्त परिभाषाओं को भली-भांति जानते, समझते और मानते हुए सदाचार स्वरूप धर्म का जो पालन करता है और दुराचार स्वरूप अधर्म से दूर रहता है, वह वैदिक-हिन्दू धर्म का अवलम्बी है।

(श्री राजेंदर सिंह जी के सहयोग से लिखी गई )