Monday, May 22, 2017

स्वामी दयानंद द्वारा 24 वर्ष की कन्या से 48 वर्ष के पुरुष का विवाह करना बताया गया हैं। यह कितना उचित है?



शंका समाधान

स्वामी दयानंद द्वारा 24 वर्ष की कन्या से 48 वर्ष के पुरुष का विवाह करना बताया गया हैं। यह कितना उचित है?

समाधान

सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी दयानंद जी लिखते हैं –

16 वें से लेके 24 वें वर्ष तक कन्या और 25वें वर्ष से लेके 48 वें वर्ष तक पुरुष का विवाह समय उत्तम है।  इस में जो 16 और 25 में विवाह करे तो निकृष्ट , 18-20 वर्ष की स्त्री तथा 30-35 वा 40 वर्ष के पुरुष का मध्यम , 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम हैं। जिस देश में इसी प्रकार विवाह की विधि श्रेष्ठ और ब्रहमचर्य विद्या अभ्यास अधिक होता है वह देश सुखी और जिस देश में ब्रहमचर्य, विद्या रहन रहित बाल्यावस्था और अयोग्यों का विवाह होता है।  वह देश दुःख में डूब जाता है।

स्वामी जी ने 24 वर्ष की स्त्री के साथ 48 वर्ष के पुरुष का विवाह करने को क्यूँ कहा है?  इसका उत्तर सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में पठन-पाठन विधि में दिया गया है। वैदिक वांग्मय विशाल सागर के समान है। स्वामी दयानन्द व्याकरण से लेकर वेदों के विद्वान बनाने के लिए सत्यार्थ प्रकाश के तृतीया समुल्लास में पाठ विधि लिखते है।

स्वामी जी लिखते है---

इस पाठ विधि में (संक्षेप में) स्वामी जी द्वारा व्याकरण के प्रारंभ में अष्टाध्यायी तदनन्तर धातुपाठ, उणादिगण, शंका ,समाधान वार्तिक, कारिका , परिभाषा तदनन्तर महाभाष्य, यास्क मुनि कृत निघंटु और निरुक्त, तदनन्तर छन्द ग्रन्थ,मनुस्मृति,वाल्मीकि रामायण और महाभारत,विदुरनीति, तदनन्तर पूर्व मीमांसा,वैशेषिक,न्याय,योग,सांख्य और वेदांत, ईश,केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य, ऐतरेय , तैतरीय, छान्दोग्य और बृहद अरण्यक, तत्पश्चात ब्राह्मण ग्रन्थ ऐतरेय, शतपथ , साम और गोपथ के सहित चारों वेदों के स्वर, शब्द,अर्थ,सम्बन्ध तथा क्रियासाहित पढ़ना योग्य हैं। वेदों को पढ़ के आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद और अर्थवेद यह चार उपवेद पढ़े।

व्याकरण के महान विद्वान एवं स्वामी दयानंद के परम भक्त महामहोपाध्याय पंडित युधिष्ठर जी मीमांसक के अनुसार स्वामी दयानंद द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित आर्ष पाठ विधि का चार भाग में विभागीकरण किया जा सकता हैं।

प्रथम कल्प – 24 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 16 वर्ष में तक निरन्तर व्याकरण में महाभाष्य पर्यन्त, निरुक्त, सामान्य कोष, छन्द शास्त्र साहित्य, ज्योतिष शास्त्र, कल्प सूत्र , धर्म सूत्र, उपनिषद् तथा एक वेद का अध्ययन हो सकता हैं।

द्वितीय कल्प- 32 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 24 वर्ष में तक निरन्तर – पहले लिखे गए पाठ्यक्रम को पढ़ कर यजुर्वेद का अध्ययन करने वाला व्यक्ति 4 वर्ष में शतपथ ब्राह्मण, आयुर्वेद को पढ़े व सामवेद को वादित्रवाहन ,सामगान, नाट्य शास्त्र के साथ अध्ययन करें। इस प्रकार वह दो वेदों का विद्वान बन जायेगा।

तृतीय कल्प – 40 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 32 वर्ष में तक निरन्तर – सम्पूर्ण ऋग्वेद को ऐतरेय ब्राह्मण के साथ, सामवेद को तांड्य ब्राह्मण के साथ , अथर्ववेद को गोपथ ब्राह्मण के साथ पढ़े।

चतुर्थ कल्प- 48 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 40 वर्ष में तक निरन्तर – चारों वेदों का वेदांग और उपवेद सहित विद्वान होकर किसी भी विद्या क्षेत्र में विशेष योग्यता प्राप्त करे।

यहाँ तो तो पुरुष की आयु का समाधान हो गया। ऋषि परम्परा में पूर्ण विद्वान बनने में 40 वर्षों का समय लगता है।

 अब कन्या की आयु की शंका का समाधान चिकित्सा विज्ञान में मिलता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार अगर संतान उत्पन्न करते समय माता की आयु अधिक हो तो संतान अनेक genetic अर्थात अनुवांशिक रोगों की शिकार होने की सम्भावना बढ़ जाती है।  जैसे एक उदहारण लीजिये। एक माता की  30 वर्ष की आयु में पैदा हुई संतान हुई है।  और दूसरी माता की 35 वर्ष की आयु में पैदा हुई संतान हुई है।  जो 35 वर्ष से अधिक आयु की संतान है उसे अनुवांशिक रोग जैसे Down's Syndrome होने की सम्भावना अधिक है। इससे आगे 40 वर्ष की आयु में अनुवांशिक रोग होने की सम्भावना और अधिक है। माता की 20 से 25 वर्ष की आयु में पैदा हुई संतान सबसे अधिक निरोगी होती है। क्यूंकि इस समय माता का शरीर सबसे अधिक बलशाली होता है।

48 वर्ष की आयु में कोई पिता बने तो उससे संतान में रोग होने की सम्भावना नहीं है। मगर कोई माता बने तो उससे रोग होने की सम्भावना अधिक है।
 48 वर्ष की आयु में भी वेदों में पारंगत विद्वान अपने नैष्ठिक ब्रहमचर्य के बल पर, अपने सुविचारों के कारण और संयम विज्ञान के कारण युवा जैसे शरीर का स्वामी  होगा। और ऐसे विद्वान का विवाह 16 वर्ष की कन्या से करना भी उचित नहीं होगा क्यूंकि 16 वर्ष की कन्या की विद्या,गुण और बल में और 24 वर्ष की कन्या की विद्या,गुण और बल में भारी अंतर होने से विवाहित जीवन सुखी न होगा।

इसलिए 48 की आयु के वेदों में पारंगत विद्वान् का विवाह 24 से तो किया जा सकता है। मगर 16 वर्ष की कन्या से अनुचित है। आज के परिवेश में अनुचित खान-पान, भोगवाद के कारण हम वैदिक काल की शिक्षा एवं विवाह व्यवस्था की कल्पना करना कठिन प्रतीत होता हैं। मगर प्राचीन काल में समाज की व्यवस्था ऐसी ही थी।  अंत में यही कहना सत्य होगा की स्वामी दयानंद के मूल मंतव्य को समझकर कुतर्क देने से कोई लाभ नहीं हैं। विवाह के समय में आयु के अंतर के पीछे कारण मूल रूप से विद्या की प्राप्ति कर उचित पात्र के साथ सम्बन्ध स्थापित करना है।

डॉ विवेक आर्य 

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