Monday, September 4, 2017

गोभक्त स्वामी दयानन्द



गोभक्त स्वामी दयानन्द

महर्षि दयानन्द ने गोरक्षा व गोपालन के महत्व को दर्शाने वाली एक लघु पुस्तिका “गोकरूणानिधि” लिखी है जो गो के महत्व पर विश्व के इतिहास में प्राचीनता, ऐतिहासिकता, प्रमाण एवं विवेचन की दृष्टि से अन्यतम है। बार-बार इसका पाठ करना चाहिये। इसमें महर्षि दयानन्द ने अपने हृदय को खोल कर प्रस्तुत किया है। गायों के प्रति उनके हृदय में कितना सम्मान, आदर व पूजा का भाव है, यह इस पुस्तक को पढ़ने से पाठकों को ज्ञात होगा।
        महर्षि दयानन्द में ज्ञान की जो पराकाष्ठा थी, उसके कारण वह गाय माता के अभूतपूर्व भक्त बने। इस पुस्तक में महर्षि दयानन्द ने आर्थिक आधार पर भी गाय से होने वाले लाभों की चर्चा व गणितीय गणना करते हुए बताया है कि एक गाय की एक पीढ़ी से 4,10,440 व्यक्ति एक बार के भर पेट भोजन से तृप्त होते हैं। इस पर भी यदि गाय की पीढ़ी-पर-पीढ़ी से होने वाले दुग्ध व बैलों से होने वाले कृषि के अन्न की गणना करें तो असंख्य प्राणियों को भोजन का लाभ एक गाय की अनेक पीढि़यों से होता है। इतना ही नहीं स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं कि जितने आरोग्यकारक और बुद्धिवर्धक आदि गुण गाय के दुग्ध से होते हैं, उतने भैंस के दूध और भैंसे आदि से नहीं हो सकते। इसलिए आर्यों ने गाय को सर्वोत्तम पशु माना है। हम यह समझते हैं कि महर्षि दयानन्द ने जो गणना की है वह गणित के नियमों से पुष्ट होने के कारण भ्रान्तिरहित एवं सर्वमान्य तथ्य है। इस पर भी यदि भारत या इसके किसी राज्य किंवा विश्व के किसी देश में मांसाहार के लिए गोहत्या होती है तो वह मानवीय गुणों अंहिसा, दया, करूणा, प्रेम, स्नेह, उदारता, कृतज्ञता आदि के विरूद्ध होने से घोर अन्यायपूर्ण कार्य है। महर्षि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि एक गाय की अनेक पीढि़यों से असंख्य लोगों का पालन होता है वहीं एक गाय को काट कर खाने से अधिक से अधिक 80 लोग एक बार में तृप्त हो सकते हैं। ‘‘देखों ! तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’ हम महर्षि के इस विचार से पूर्णतया सहमत हैं। महापाप का अर्थ महादुःख होना है। इस महापाप को करने वालों को यह महादुःख भावी जन्म जन्मान्तरों में अवश्य हि भोगना है, यह शास्त्रीय तर्कसंगत विचार व मान्यता है।

                       गोकरूणानिधि पुस्तक में महर्षि दयानन्द ने गाय से इतर बकरी का उल्लेख कर एक बकरी की एक पीढ़ी से 25,920 लोगों का एक समय का पर्याप्त भोजन होता है तथा इसकी पीढ़ी-पर-पीढ़ी के हिसाब से असंख्य लोगों का पालन होता है। हम यहां महर्षि दयानन्द के कुछ बहुत ही उपयोगी विचारों को प्रस्तुत कर रहें हैं जिससे उनकी भावना का ज्ञान पाठकों हो सके। वह लिखते हैं कि ‘जैसे ऊंट- ऊंटनी से लाभ होते हैं, वैसे ही घोड़े-घोड़ी और हाथी आदि से अधिक कार्य सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार सुअर, कुत्ता, मुर्गा, मुर्गी और मोर आदि पक्षियों से भी अनेक उपकार होते हैं। जो मनुष्य हिरन और सिंह आदि पशु और मोर आदि पक्षियों से भी उपकार लेना चाहें तो ले सकते हैं, परन्तु सबकी रक्षा उत्तरोत्तर समयानुकूल होवेगी। वर्तमान में परमोपकारक गो की रक्षा में मुख्य तात्पर्य है। दो ही प्रकार से मनुष्य आदि का प्राणरक्षण, जीवन, सुख, विद्या, बल और पुरूषार्थ आदि की वृद्धि होती है--एक अन्नपान, दूसरा आच्छादन। इनमें से प्रथम के बिना तो सर्वथा प्रलय और दूसरे के बिना अनेक प्रकार की पीड़ा प्राप्त होती है।

देखिए, जो पशु निःसार घास-तृण, पत्ते, फल-फूल आदि खावें और दूध आदि अमृतरूपी रत्न देवें, हल-गाड़ी आदि में चलके अनेक विध अन्न आदि उत्पन्न कर, सबके बुद्धि, बल, पराक्रम को बढ़ाके नीरोगता करें, पुत्र-पुत्री और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहां बांधे वहां बंधे रहें, जिधर चलावें उधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें, देखने और बुलाने पर समीप चले आवें, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा माननेवाले को देखें, अपनी रक्षा के लिए पालन करनेवाले के समीप दौड़कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा। जिसके मरे पर चमड़ा भी कांटों आदि से रक्षा करे, जगंल में चरके अपने बच्चे और स्वामी के लिए दूध देने के नियत स्थान पर नियत समय पर चलें आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिए तन-मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्य के सुख के लिए है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काटकर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारक, दुःख देनेवाले और पापी मनुष्य होंगे?’

महर्षि आगे लिखते हैं कि इसीलिए यजुर्वेद के प्रथम ही मन्त्र में परमात्मा की आज्ञा है कि –‘अघ्न्या’, ‘यजमानस्य पशून् पाहि’ हे मनुष्य ! तू पशुओं को कभी मत मार, और यजमान, अर्थात् सबको सुख देनेवाले मनुष्यों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे, इसीलिए ब्रह्मा से लेके आजपर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे और इनकी रक्षा से अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि के अधिक होने से दरिद्र को भी खान-पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है और अन्न के न्यून खाने से मल भी कम होता है। मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टि जल की अशुद्धि भी न्यून होती है, उससे रोगों की न्यूनता होने से सबका सुख बढ़ता है।

इससे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं का नाश होने से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कर्मों की भी घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना दूध, घी और बैल आदि पशु इस समय दश गुणे मूल्य से भी नहीं मिल सकते (यह बात अर्थशास्त्र के मूल्य निर्धारण सिद्धान्त मांग एवं पूर्ति (Supply and Demand से सिद्ध है), क्योंकि सात सौ वर्ष के पीछे इस देश में गवादि पशुओं को मारनेवाले मांसाहारी विदेशी मनुष्य आ बसे हैं। वे उन सर्वोपकारी पशुओं के हाड़-मांस तक भी नहीं छोड़ते, तो ‘नष्टे मूल नैव फलं न पुष्पम्’ जब कारण का नाश कर दे तो कार्य नष्ट क्यों न हो जावे? ‘हे मांसाहारियों तुम लोगों को कुछ काल के पश्चात् जब पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं? हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर, जो कि विना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है, क्या उनके लिए तेरी न्यायसभा बन्द हो गई है? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता, और उनकी पुकार नहीं सुनता? क्यों इन मांसाहारियों की आत्माओं में दया का प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता, जिससे ये इन बुरे कामों से बचें।’
भारत का गुजरात राज्य गोरक्षा, गोसंरक्षण एवं गोदुग्ध के उत्पदान में सम्भवतः देश का सबसे बड़ा आदर्श राज्य है। देश के सभी राज्यों को इसका अनुकरण करना चाहिये। जिन राज्यों में गोहत्या निषिद्ध है वह बधाई व साधुवाद के पात्र हैं। वहां अभियान इस बात का चलना चाहिये कि कहीं कोई चोरी छिपे गोहत्या कर गोमांस का सेवन न करता हो। ऐसा होने पर भारत न केवल स्वावलम्बी ही बनेगा अपितु इससे प्रजाजनों में रोगों में कमी आयेगी और लोग स्वस्थ, बलशाली एवं दीर्घजीवी बनेंगे। यही किसी राजनेता का स्वप्न होना चाहिये। आर्यराजाओं का सम्भवतः यही स्वप्न था। इसी कारण राजा श्री राम व योगेश्वर श्री कृष्ण स्वयं व इनके पूर्वज आदर्श गोरक्षक व गोपालक होते थे।

महर्षि दयानन्द ने अपने समय के अंग्रेज उच्च राज्याधिकारियों से सम्पर्क कर गोहत्या बन्द करने की मांग की थी व उनको मौखिक दृष्टि से सहमत भी किया था। उन्होंने एक हस्ताक्षर अभियान भी देशभर में चलाया था जिसे वह इंग्लैण्ड की राजरानी विक्टोरिया को भेजना चाहते थे परन्तु कुछ विधर्मी, स्वार्थी, अज्ञानी, मिथ्याचारी, विलासी, षडयंत्रकारी लोगों ने विष देकर इससे पूर्व ही उन्हें मार डाला जिससे देशोपकार के उनके द्वारा किये जा रहे अनेक कार्य रूक गये। गोरक्षा ही वस्तुतः देश की रक्षा है और गोहत्या राष्ट्रहत्या है। हम आशा करते हैं कि देश के सभी बन्धु सहृदयता से गोरक्षा पर मानवीय, धार्मिक एवं आर्थिक आधार पर विचार कर गोहत्या एवं गोमांसाहार के घृणित कार्य को छोड़कर देश की उन्नति में सहायक होगें।

स्वामी दयानन्द ने आधुनिक भारत की पहली गौशाला की स्थापना रिवाड़ी, हरियाणा में 1878 में की थी। उनके आवाहन पर हिन्दू समाज ने हज़ारों गौशालाएं सम्पूर्ण भारत में स्थापित की।

खेद है कि गोभक्त स्वामी के आज़ाद भारत में आज भी गौकशी हो रही है। 

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