Friday, January 26, 2018

मनुष्य बन्दर नहीं अपितु युवा रूप में सबसे पहले पैदा हुआ था।



मनुष्य बन्दर नहीं अपितु युवा रूप में सबसे पहले पैदा हुआ था।

डॉ विवेक आर्य

औरंगाबाद में वैदिक सम्मलेन में बोलते हुए केंद्रीय राज्य मंत्री डॉ सत्यपाल सिंह ने कहा की मनुष्य बन्दर रूप में नहीं अपितु युवा रूप में पैदा हुआ था। हमारे पाठयक्रम में पढ़ाई जा रही इस भ्रान्ति को दूर किया जाना चाहिए। केंद्रीय मंत्री जी के बयान पर एक विशेष खेमे में खलबली मच गई। इस खेमे के अनुसार जो कुछ विदेशी सोचते हैं वह सही है। जो कुछ भारतीय मनीषीयों का चिंतन है। वह गलत है। इस विषय पर अनेक लेखों के माध्यम से उनकी इस भ्रान्ति का निवारण किया जायेगा। यह प्रथम लेख वेद आदि शास्त्रों के प्रमाण से सम्बंधित है। जिनके अनुसार मनुष्य बन्दर रूप में नहीं अपितु युवा रूप में पैदा हुआ था।

पश्चिमी सभ्यता में डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत प्रचलित है। इसके अनुसार मनुष्य पहले बन्दर रूप में पैदा हुआ। बाद में विकास कर मनुष्य बना। वैदिक विचारधारा विकासवाद को नहीं मानती। इसके अनुसार मनुष्य सृष्टि की उत्पत्ति काल में युवा रूप में पैदा हुआ था। अगर बालक रूप में पैदा होता तो अपनी परवरिश करने में असक्षम होता और अगर वृद्ध होता तो संतान उत्पत्ति में असक्षम होता। इसलिए ईश्वर ने अनेक मनुष्यों को युवा रूप पैदा किया। उनके सम्बन्ध से मनुष्यों की अगली पीढ़ी पैदा हुई। सर्वप्रथम सृष्टि अमैथुनी कहलाई अगली मैथुनी सृष्टि कहलाई।

वेदों में सृष्टि उत्पत्ति के समय मनुष्यों के अमैथुनी सृष्टि द्वारा युवावस्था में होने का प्रमाण मिलते है।

ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोऽ मध्यमासो महसा वि वावृधुः ।
सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या आ नो अच्छा जिगातन ।।-(ऋ० ५/५९/६)

भावार्थ:- सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न होने वाले मनुष्य वनस्पति आदि की भाँति उत्पन्न हुए।उनमें कोई ज्येष्ठ-कनिष्ठ अथवा मंझला न था-अवस्था में वे सब समान थे।वे तेजी से बढ़े।उत्कृष्टजन्मा वे लोग जन्म से प्रकृति माता के प्रकाशमय परमात्मा के पुत्र हम सब मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त उत्कृष्ट हैं।

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः ।।-(ऋ० ५/६०/५)

भावार्थ:-सर्गारम्भ में उत्पन्न हुए मनुष्य छोटाई और बड़ाई से रहित होते हैं।ये भाई कल्याण के लिए एक-से बढ़ते हैं।सदा जवान,सदा श्रेष्ठकर्मा,पापियों को रुलाने वाला शक्तिशाली परमात्मा इनका पिता होता है और परिश्रमी मनुष्यों के लिए सुदिन लाने वाली प्रकृति अथवा पृथिवी इनके लिए सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है।

इन मन्त्रों में जवान मनुष्यों की उत्पत्ति का अत्यन्त स्पष्ट वर्णन है।अब तो पाश्चात्य विद्वान भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं।बोस्टन नगर के स्मिथ-सोनयिम इनस्टीट्यूशन (Smithsoniam lnstitution) के अध्यक्ष डा० क्लार्क (Clark) का कथन है-

Man appeared able to walk,able to think and able to defend himself.

अर्थात् मनुष्य उत्पन्न होते ही चलने,विचारने तथा आत्मरक्षा करने में समर्थ था।

सर्गारम्भ में एक दो मनुष्य उत्पन्न नहीं हुए,अनेक स्त्री-पुरुष उत्पन्न हुए थे।यजुर्वेदीय पुरुषोपनिषद् में कहा है-

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये।।-(यजु० ३१/९)

अर्थ:-उस परमेश्वर ने मनुष्य और ऋषियों को उत्पन्न किया।

यहाँ 'साध्याः' और 'ऋषयः' दोनों बहुवचन में हैं,अतः ईश्वर ने सैकड़ों-सहस्रों मनुष्यों को उत्पन्न किया।
मुण्डकोपनिषद् में भी इस बात का समर्थन किया गया है-

तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः,साध्या मनुष्याः पश्वो वयांसि।।-(मुण्डक० २/१/७)

अर्थ:-उस पुरुष (परमात्मा) से अनेक प्रकार के देव=ज्ञानीजन,साधनशील मनुष्य,पशु और पक्षी उत्पन्न हुए।

ऋषि दयानन्द जी द्वारा जीवन में दो अवसरों पर चाल्र्स डार्विन और उनके विकासवाद पर की गई दो तात्कालिक टिप्पणियां भी प्रस्तुत हैं। रूड़की में 1878 में दिए एक भाषण में उन्होंने कहा था कि ‘जिस समय वानर से नर उत्पन्न हुआ, कोई बन्धन इस प्रकार का नहीं लगाया गया था, कि आगे को वानर उसी प्रकार का कर्म करके नर को उत्पन्न नहीं करेगा, फिर क्या कारण है कि उस काल के पश्चात अब तक एक नर भी वानर से उत्पन्न नहीं हुआ - जबकि वह सब नर पशु और नारी पशु, जिनके संयोग से नर हुआ था, पृथिवी पर उपस्थित रहे।’

बरेली में दिनांक 25-8-1879 को दूसरी टिप्पणी करतें हुए ऋषि दयानन्द ने पादरी टी.जे. स्काट को शास्त्रार्थ में कहा था कि ‘‘जिनको आप सुशिक्षित कहते हैं, उन जातियों में से कोई मनुष्य अर्थात् दार्शनिक या विचारक (चाल्र्स डारविन) बन्दर से मनुष्य (उत्पन्न) होना मानता है, यह सर्वथा मिथ्या है।”

वेदों के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य बन्दर नहीं अपितु युवा रूप में सबसे पहले पैदा हुआ था।

संसारभर के विकासवादियों से प्रश्न



संसारभर के विकासवादियों से प्रश्न
अभी हाल में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री माननीय डाॅ. सत्यपालसिंहजी के इस कथन कि मनुष्य की उत्पत्ति बन्दर से नहीं हुई, सम्पूर्ण भारत के बुद्धिजीवियों में हलचल मच रही है। कुछ वैज्ञानिक सोच के महानुभाव इसे साम्प्रदायिक संकीर्णताजन्य रूढ़िवादी सोच की संज्ञा दे रहे हैं। मैं उन महानुभावों से निवेदन करता हूँ कि मंत्रीजी का यह विचार रूढ़िवादी नहीं बल्कि सुदृढ़ तर्कों पर आधारित वैदिक विज्ञान का ही पक्ष है। ऐसा नहीं है कि विकासवाद का विरोध कुछ भारतीय विद्वान् ही करते हैं अपितु अनेक यूरोपियन वैज्ञानिक भी इसे नकारते आये हैं। मैं इसका विरोध करने वाले संसारभर के विकासवादियों से प्रश्न करना चाहता हूँ। ये प्रश्न प्रारम्भिक हैं, इनका उत्तर मिलने पर और प्रश्न किये जायेंगे :-
शारीरिक विकास
१. विकासवादी अमीबा से लेकर विकसित होकर बन्दर पुनः शनैः-२ मनुष्य की उत्पत्ति मानते हैं। वे बताएं कि अमीबा की उत्पत्ति कैसे हुई?
२. यदि किसी अन्य ग्रह से जीवन आया, तो वहाँ उत्पत्ति कैसे हुई? जब वहाँ उत्पत्ति हो सकती है, तब इस पृथ्वी पर क्यों नहीं हो सकती?
३. यदि अमीबा की उत्पत्ति रासायनिक क्रियाओं से किसी ग्रह पर हुई, तब मनुष्य के शुक्राणु व अण्डाणु की उत्पत्ति इसी प्रकार क्यों नहीं हो सकती?
४. उड़ने की आवश्यकता होने पर प्राणियों के पंख आने की बात कही जाती है परन्तु मनुष्य जब से उत्पन्न हुआ, उड़ने हेतु हवाई जहाज बनाने का प्रयत्न करता रहा है, परन्तु उसके पंख क्यों नहीं उगे? यदि ऐसा होता, तो हवाई जहाज के अविष्कार की आवश्यकता नहीं होती।
५. शीत प्रदेशों में शरीर पर लम्बे बाल विकसित होने की बात कही जाती है, तब शीत प्रधान देशों में होने वाले मनुष्यों के रीछ जैसे बाल क्यों नहीं उगे? उसे कम्बल आदि की आवश्यकता क्यों पड़ी?
६. जिराफ की गर्दन इसलिए लम्बी हुई कि वह धरती पर घास सूख जाने पर ऊपर पेड़ों की पत्तियां गर्दन ऊँची करके खाता था। जरा बताएं कि कितने वर्ष तक नीचे सूखा और पेड़ों की पत्तियां हरी रहीं? फिर बकरी आज भी पेड़ों पर दो पैर रखकर पत्तियां खाती है, उसकी गर्दन लम्बी क्यों नहीं हुई?
७. बंदर के पूंछ गायब होकर मनुष्य बन गया। जरा कोई बताये कि बंदर की पूंछ कैसे गायब हुई? क्या उसने पूंछ का उपयोग करना बंद कर दिया? कोई बताये कि बन्दर पूंछ का क्या उपयोग करता है और वह उपयोग उसने क्यों बंद किया? यदि ऐसा ही है तो मनुष्य के भी नाक, कान गायब होकर छिद्र ही रह सकते थे। मनुष्य लाखों वर्षोंसे से बाल और नाखून काटता आ रहा है, तब भी बराबर वापिस उगते आ रहे हैं, ऐसा क्यों?
८. सभी बंदरों का विकास होकर मानव क्यों नहीं बने? कुछ तो अमीबा के रूप में ही अब तक चले आ रहे हैं, और हम मनुष्य बन गये, यह क्या है?
९. कहते हैं कि सांपों के पहले पैर होते थे, धीरे-२ वे घिस कर गायब हो गये। जरा विचारों कि पैर कैसे गायब हुए, जबकि अन्य सभी पैर वाले प्राणियों के पैर बिल्कुल नहीं घिसे।
१०. बिना अस्थि वाले जानवरों से अस्थि वाले जानवर कैसे बने? उन्हें अस्थियों की क्या आवश्यकता पड़ी?
११. बंदर व मनुष्य के बीच बनने वाले प्राणियों की श्रंखला कहाँ गई?
१२. विकास मनुष्य पर जाकर क्यों रुक गया? किसने इसे विराम दिया? क्या उसे विकास की कोई
आवश्यकता नहीं है?
बौद्धिक व भाषा सम्बन्धी विकास
1. कहते हैं कि मानव ने धीरे-2 बुद्धि का विकास कर लिया, तब प्रश्न है कि बन्दर व अन्य प्राणियों में बौद्धिक विकास क्यों नहीं हुआ?
2. मानव के जन्म के समय इस धरती पर केवल पशु पक्षी ही थे, तब उसने उनका ही व्यवहार क्यों नहीं सीखा? मानवीय व्यवहार का विकास कैसे हुआ? करोड़ों वनवासियों में अब तक विशेष बौद्धिक विकास क्यों नहीं हुआ?
3. गाय, भैंस, घोड़ा, भेड़, बकरी, ऊंट, हाथी करोड़ों वर्षों से मनुष्य के पालतू पशु रहे हैं पुनरपि उन्होंने न मानवीय भाषा सीखी और न मानवीय व्यवहार, तब मनुष्य में ही यह विकास कहाँ से हुआ?
4. दीपक से जलता पतंगा करोड़ों वर्षों में इतना भी बौद्धिक विकास नहीं कर सका कि स्वयं को जलने से रोक ले, और मानव बन्दर से इतना बुद्धिमान् बन गया कि मंगल की यात्रा करने को तैयार है? क्या इतना जानने की बुद्धि भी विकासवादियों में विकसित नहीं हुई ? पहले सपेरा सांप को बीन बजाकर पकड़ लेता था और आज भी वैसा ही करता है परन्तु सांप में इतने ज्ञान का विकास भी नहीं हुआ कि वह सपेरे की पकड़ में नहीं आये।
5. पहले मनुष्य बल, स्मरण शक्ति एवं शारीरिक प्रतिरोधी क्षमता की दृष्टी से वर्तमान की अपेक्षा बहुत अधिक समृद्ध था, आज यह ह्रास क्यों हुआ, जबकि विकास होना चाहिए था?
6. संस्कृत भाषा, जो सर्वाधिक प्राचीन भाषा है, उस का व्याकरण वर्तमान विश्व की सभी भाषाओं की अपेक्षा अतीव समृद्ध व व्यवस्थित है, तब भाषा की दृष्टी से विकास के स्थान पर ह्रास क्यों हुआ?
7. प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थों में भरे विज्ञान के सम्मुख वर्तमान विज्ञान अनेक दृष्टी से पीछे है, यह मैं अभी सिद्ध करने वाला हूँ, तब यह विज्ञान का ह्रास कैसे हुआ? पहले केवल अन्तःप्रज्ञा से सृष्टि का ज्ञान ऋषि कर लेते थे, तब आज वह ज्ञान अनेकों संसाधनों के द्वारा भी नहीं होता। यह यह उलटा क्रम कैसे हुआ?
भला विचारें कि यदि पशु पक्षियों में बौद्धिक विकास हो जाता, तो एक भी पशु पक्षी मनष्य के वश में नहीं आता। यह कैसी अज्ञानता भरी सोच है, जो यह मानती है कि पशु पक्षियों में बौद्धिक विकास नहीं होता परन्तु शारीरिक विकास होकर उन्हें मनुष्य में बदल देता है और मनुष्यों में शारीरिक विकास नहीं होकर केवल भाषा व बौद्धिक विकास ही होता है। इसका कारण क्या विकासवादी मुझे बताएंगे।
आज विकासवाद की भाषा बोलने वाले अथवा पौराणिक बन्धु श्री हनुमान् जी को बन्दर बताएं, उन्हें वाल्मीकीय रामायण का गम्भीर ज्ञान नहीं है। वस्तुतः वानर, ऋक्ष, गृध, किन्नर, असुर, देव, नाग आदि मनुष्य जाति के ही नाना वर्ग थे। ऐतिहासिक ग्रन्थों में प्रक्षेपों (मिलावट) को पहचानना परिश्रम साध्य व बुद्धिगम्य कार्य है।
ऊधर जो प्रबुद्धजन किसी वैज्ञानिक पत्रिका में पेपर प्रकाशित होने को ही प्रामाणिकता की कसौटी मानते हैं, उनसे मेरा अति संक्षिप्त विनम्र निवेदन है-
1. बिग बैंग थ्योरी व इसके विरुद्ध अनादि ब्रह्माण्ड थ्योरी, दोनों ही पक्षों के पत्र इन पत्रिकाओं में छपते हैं, तब कौनसी थ्योरी को सत्य मानें?
2. ब्लैक होल व इसके विरुद्ध ब्लैक होल न होने की थ्योरीज् इन पत्रिकाओं में प्रकाषित हैं, तब किसे सत्य मानें?
3. ब्रह्माण्ड का प्रसार व इसके प्रसार न होने की थ्योरीज् दोनों ही प्रकाषित हैं, तब किसे सत्य मानें?
ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस कारण यह आवश्यक नहीं है कि हमें एक वर्गविषेश से सत्यता का प्रमाण लेना अनिवार्य हो? हमारी वैदिक एवं भारतीय दृष्टी में उचित तर्क, पवित्र गम्भीर ऊहा एवं योगसाधना (व्यायाम नहीं) से प्राप्त निष्कर्ष वर्तमान संसाधनों के द्वारा किये गये प्रयोगों, प्रक्षेपणों व गणित से अधिक प्रामाणिक होते हैं। यदि प्रयोग, प्रेक्षण व गणित के साथ सुतर्क, ऊहा का साथ न हो, तो वैज्ञानिकों का सम्पूर्ण श्रम व्यर्थ हो सकता है। यही कारण है कि प्रयोग, परीक्षणों, प्रेक्षणों व गणित को आधार मानने वाले तथा इन संसाधनों पर प्रतिवर्ष खरबों डाॅलर खर्च करने वाले विज्ञान के क्षेत्र में नाना विरोधी थ्योरीज् मनमाने ढंग से फूल-फल रही हैं और सभी अपने को ही सत्य कह रही हैं। यदि विज्ञान सर्वत्र गणित व प्रयोगों को आधार मानता है, तब क्या कोई विकासवाद पर गणित व प्रयोगों का आश्रय लेकर दिखाएगा?
इस कारण मेरा सम्मान के योग्य वैज्ञानिकों एवं देश व संसार के प्रबुद्ध जनों से अनुरोध है कि प्रत्येक प्राचीन ज्ञान का अन्धविरोध तथा वर्तमान पद्धति का अन्धानुकरण कर बौद्धिक दासत्व का परिचय न दें। तार्किक दृष्टी का सहारा लेकर ही सत्य का ग्रहण व असत्य का परित्याग करने का प्रयास करें। हाँ, अपने साम्प्रदायिक रूढ़िवादी सोच को विज्ञान के समक्ष खड़े करने का प्रयास करना अवश्य आपत्तिजनक है।
- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक, वैदिक वैज्ञानिक
अध्यक्ष, श्री वैदिक स्वस्ति पन्था न्यास

आदि सृष्टि मे मनुष्य के उत्पन्न होनेपर शंका



"आदि सृष्टि मे मनुष्य के उत्पन्न होनेपर शंका"
(पंडित रघुनानंदन शर्मा जी की पुस्तक अक्षरविज्ञान पर आधारित)
प्रस्तुतकर्ता- सहदेव शास्त्री, संपादक, शांतिधर्मी मासिक पत्रिका, जींद, हरियाणा
(केंद्रीय राज्य मंत्री डॉ सत्यपाल सिंह जी के डारविन के विकासवाद के सिद्धांत को अवैज्ञानिक करार देने पर हमारे देश के कुछ तथाकथित लोग अधिक से अधिक शोर कर रहे हैं। जबकि होना यह चाहिये था कि इस विषय पर भारत के शीर्घ वैज्ञानिक बैठकर चिंतन मनन करते। पक्ष और विपक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करते। अंत में निष्कर्ष पर पहुँचते। यह लेख उसी कड़ी में विकासवाद के खंडन के लिए प्रस्तुत किया जा रहा हैं।)
विकासवाद वालों के दिलो पर यह शंका भी होती होगी कि अकस्मात् कैसै अनेक प्राणी और मनुष्यादि शरीरवाले सृष्टि की आदि मे अनायास अपने अपने रुप में निकल पडे होंगे ? हम कहते है घबराने की बात नही है . सावधान होकर सृष्टि को देखो, वह आपको जवाब दे देगी । देखो बरसात में बीरबहूटी ( बरसाती किड़ा ), केंचुऐ , मेंढक आदि कैसै उसी रुप में पैदा हो पढते है जिसमे वे सैकड़ों वर्ष पूर्वसे हरसाल बरसात में पैदा होते थे । उनको क्रमक्रम विकासकी जरुरत क्यों नहीं होती मेंढक तो ऐसा विचित्र जन्तु है और अपने जन्मका ऐसा सुन्दर नाटक दिखलाता है कि लोग दंग रह जाते है । किसी मेंढक का चूर्ण बनाकर और बारीक कपडे में छानकर शीशी में बन्द कर लीजिये बरसात में उस चूर्णको पानी बरसते समय जमीनपर डाल दीजीये तुरन्त ही छोटे छोटे मेंढक कूदने लगेंगे । इनको क्रमक्रम उन्नतिकी क्यों दरकार नहीं होती ? आज जब सृष्टि में इतने दिन होजानेपर भी इतना बल मौजूद है कि वह हरसाल बरसात मे एक एक फुट और डेढ़ डेढ़ फुटके कीडे केंचुऐ बिना माता पिताके पैदा कर सकती है तो क्या अरबों वर्ष पूर्व जब सृष्टि में पूर्ण बल मौजूद था, इस पाँच फीट लम्बे कीडे ( मनुष्य ) के उत्पन्न करने में असमर्थ कही जा सकती है ? कभी नहीं । अतः यह निश्चय है निर्विवाद है निसंशय है कि आदिसृष्टि में मनुष्य इसी प्रकारका हुआ जिस प्रकार का अब है । और होना भी तो चाहिये था ।
क्योंकि पूर्व सृष्टि में जिनको मनुष्य शरीरके सुख दुःख भोगने को बाकी रहगये थे उन्हे मनुष्य बनाना ही तो न्याय था क्योंकि यदि कोई मनुष्य दिन समाप्त हो जानेपर रात्रि आजाने के कारण सोजाय तो क्या दूसरे दिन प्रातःकाल उसे मनुष्य ही रुपमें न जागना चाहिये ? अवश्य मनुष्य ही रुपमें जागना चाहिये । बस ठीक इसी भाँति आदि सृष्टि में भी कर्मानुसार अमैथुनी सृष्टी द्वारा प्रथम मनुष्यों की सृष्टि हुई ।
अब कुछ विद्वानों युरोपीय और भारतीय के प्रमाण देते है :-
(1) प्रोफेसर मैक्समुलर लिखते हैं कि " हमें इस बात के चिन्तन करने का अधिकार है कि करोड़ों मनुष्यों के होजाने के पहिले आदिमें थोडेही मनुष्य थे । आजकल हमें बताया जाता है कि यह कभी नहीं होसकता कि पहिले पहिले मनुष्य उत्पन्न हुआ हो । एक समय था जब कि थोडेही आदिपुरुष और थोडीही आदि स्त्रियाँ उत्पन्न हुई थी " । ( देखो चिप्स फाॅर्म ए जर्मन वार्कशाॅप जिल्द 1 पृष्ठ 237 क्लासी फिकेशन ऑफ मैन काईंड )
(2) न्यायमूर्ति मद्रास हायकोर्टा के भूतपूर्व जज टी.एल. स्ट्रैअ महोदयने तो अपनी पुस्तक में स्वीकार किया है कि " आदिसृष्टि अमैथुनी होती है और इस अमैथुनी सृष्टि में उत्तम और सुडौल शरीर बनते है "।
संसारकी प्रचलित सभ्यताओं से साबित होता है कि मनुष्य आरम्भ सृष्टि से ही इस आकार प्रकारका है -
मानव उत्पत्ती के बाद से ।
आदिसृष्टी से संकल्पसंवत् = १,९७,२९,४०,११७
वैवस्त मनु से आर्यसंवत् = १२,०५,३३,११७
चीन के प्रथम राजा से चीनी संवत् = ९,६०,०२,५१७
खता के प्रथम पुरुष से खताई संवत् = ८,८८,४०,३८८
पृथिवी उत्पत्ति का चाल्डियन संवत् =२,१५,००,०८७
ज्योतिष -विषयक् चाल्डियन संवत्= ४,७०,०८७
ईरान के प्रथम राजा से ईरानियन संवत्= १,८९,९९५
आर्यों के फिनीशिया जाने के समय से फिनीशियन संवत्=३०,०८७
इजिप्त जाने के समय से इजिप्शियन संवत् = २८,६६९
किसी विशेष घटना से इबरानियन संवत्=६,०२९
कलियुग के आरंभ से कलियुगी संवत्=५,११७
युधियुधिष्के प्रथम राज्यरोहण से युधिष्ठिर सवंत्= ४,१७२
मूसा के धर्मप्रचार से मूसाई संवत् =३,५८३
ईसा के जन्म दिन से ईसाई संवत्= २,०१६
"अब प्राचीन ऋषियों का सिद्धांत"
'तत्र शरीरं द्विविधं योनिजमयोनिजं च ' ।। 5 ।। 4/2/5
ऋषि कणाद = वैशेषिक दर्शन शास्त्र ।
अर्थात् दो प्रकारके शरीर होते है । योनिज और अयोनिज, जिनको हम मैथुनी और अमैथुनी सृष्टि कहते है । उपरोक्त सूत्रकी व्याख्या गौतम जीने प्रशस्तपाद में इस प्रकार की है:-
"तत्रयोनिजमनपेक्षित शुक्रशोणित देवपीणां शरीर धर्मविशेषसंहितेभ्योऽणुम्यो जायते "
इन वचनों में अमैथुनी सृष्टि का यह निर्वचन किया है कि अयोनिज शरीर रजवीर्य के बिनाही होते है, यही बात पुरुषसुक्त के इस वचन मे स्पष्ट होती है कि -
'तेन॑ दे॒वा अय॑जन्त । सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये '
अर्थात् आदि में देव साध्य ओर ऋषि परमात्मासे ही हुए । यहातक हमने अपनी क्षुद्र बुद्धि के परिणामसे सृष्टि नियमो और विज्ञान के गूढ़ रहस्यों, प्राणी, धर्मशास्त्र और वनस्पति शास्त्र के धर्मों के साथ साथ युरोपीय और भारतीय मान्य पण्डितों के अनुमोदन समर्थन तथा संसारके प्रचलित सभ्यताओं के साथ सावित किया कि आदिसृष्टि में मनुष्य ही पैदा हुआ था । मनुष्य का पिता मनुष्य ही था । साथही साथ यह भी दिखाया कि विकासवाद या डार्विन थ्योरी मतानुसार सृष्टि शृंखला सिद्ध नहीं होती । आशा है कि विचारशील पुरुष इस बात को तनिक समय न लगाते ही ग्रहण कर आगः अनुसंधान करनेकी सुविधा प्राप्त करेंगे ।
आदि सृष्टि एकही स्थानमें हुई
नदीके सूख जानेपर जिस प्रकार रेतमें कोई वृक्ष आपही आप नहीं उग निकलता और न समुद्र में घाटा हो जानेपर वालूसे दरख्त उगता हुआ देखा गया है । इसी प्रकार हम सृष्टि में बडे़ गौरसे देखते है कि जब कोई नई भूमि समुद्र के पेटसे बाहर निकलती है और रेतके मैदानों की भांति स्थल रुप में परिणत होती है । तो उसमें तबतक कोई पदार्थ पैदा नहीं होता, जबतक रेत बारीक होकर कुछ लसदार ( मिट्टी ) न होजाय । लसदार हो जानेपर भी बीज आपही आप उसमे से निकल नहीं आता किंतु अनेक कारणों के द्वारा प्रेरित होकर आँधी तूफान पशु , मक्खी, मच्छर आदिसे प्रभावित होकर वहा पहुचता है । जिन लोगो का ख्याल शायद यह हो कि कुछ दिनके बाद उस जड और निर्जीव रेतसे ही वृक्षों के अंकुर निकलने लगते होंगे, उनका वैसाही अनुमान है जैसा किसीने चक्कीसे आटा गिरता देखकर चक्की के भीतर गेहूँ के खेतों का अनुमान किया था ।
अतएव यह घटना हमे बतला रही है कि -
बीज आप ही आप नहीं निकलता किन्तु बीज तलाश करके बड़े यत्नसे किसी अनुकूल स्थान में बोया जाता है । तब पौधे तैयार होते है ओर अन्य स्थानमे लगाये जाते है । यही क्रम हम रोज बगीचे में देखते है । माली पहले एक क्यारीट में बीज तैयार करता है, फिर वहासे पौधे लेकर, सारी फलवाटिका में लगता है तथा काम पड़ने पर दूर देशको भी भेजता है । कहने का मतलब यह कि बीज सर्वत्र पैदा नहीं होता, वह एक ही स्थानसे सर्वत्र फैलता है । अतः इस बीज क्षेत्रन्यायसे मनुष्य भी पहले किसी एक ही स्थान में पैदा हुआ और फिर संसार में फैला ।
माली को जिस प्रकार बीज बोने के लिए दो बातें ध्यान में रखनी पड़ती है, उसी प्रकार मनुष्य के पैदा करनेमे परमात्मा को भी दो बातें ध्यान में रखनी पड़ी होगी ।
माली उसी स्थान में बीज बोता है जहाँ का जल वायु उस पौधे के अनुकूल हो और उसका खाद्य बहुत मिल सके दूसरे आँधी, ओले आदि बाहरी अफ़तों से भी पौधे की रक्षा हो सके । इसीतरह मनुष्य भी ऐसे ही स्थान में पैदा किया गया होगा जहाँ का जल वायु उसके अनुकूल हो और उसका खाद्य उसे मिलसके तथा आँधी, तूफान, जल-प्लावन, अग्नि-प्रपात, भूकंप और अनेक आरंभिक दुर्घटनाओं से उसकी रक्षा हो सके अतएव यदि हम मनुष्य के मिजाज ओर उसके असली आहार को जान ले और किसी ऐसे स्थानका पता लागले जहाँ आँधी, तूफान, जल-प्लावन, अग्नि-प्रपात, भूकंप और अनेक आरंभिक दुर्घटना न ही सकती हों और वह स्थान मनुष्य के मिजाज के अनुकूल और उसके खाद्य उत्पन्न करने में भी योग्य होतो निसंदेह वही स्थान मनुष्य की आदिकी सृष्टि योग्य होगा । मनुष्य ही योग्य नहीं अपितु पशु पक्षी और वनस्पति आदि सभी प्राणियोंकी आदि सृष्टि योग्य होगा । क्योंकि संसार में ऋतुएँ चाहे जितनी हों पर सर्दी और गर्मी ये दो मौसम प्रधान है, यही कारण है कि पृथिवी पर दो ही प्रकार के सर्द और गर्म प्रदेश पाये जाते है और दोनोंमें प्राणियोंकी वस्तियाँ भी पाई जाती है । यहाँ तक की मनुष्य पशु पक्षी और वनस्पति सभी पाये जाते है किन्तु मनुष्योंको छोड़कर सर्दी और गर्म देशों में रहनेवाले पशु पक्षियों के शरीरोंपर बाल अधिक वा कम होते है, अर्थात सर्द देशवालोंके बाल बहुत और गर्म देशवालोंके बाल कम होते है ।
ग्रीनलैण्ड आदि शीतल देशोंमें पशु पक्षी नहीं रहते किन्तु मनुष्य और जलजंतु पाये जाते है, तथापि मनुष्योंके शरीरपर बाल नहीं रहते । इसमें यह बात स्पष्ट होगयी की केवल सरद देशोंमें रहने मात्रसे ही बड़े बड़े बाल उगने नहीं लगते बल्कि जीव जन्तुओं को बाल दिए गए है, उनमे ही हे और जिनको नहीं दिए गए उनमे नहीं है । परंतु यह बात तो निर्विवाद है कि जो बालवाले प्राणी है निसंदेह ठन्डे देशोंके लिए बनाये गए है और जो बिना बालवाले है वे गर्म देशोंके लिए पैदा किये गए है । किंतु स्मरण रहे की यहाँ ठन्डे देश से अभिप्राय ग्रीनलैण्ड नहीं है जहाँ पशु और वृक्ष होते ही नहीं किन्तु मातदिल ठन्डे देशसे अभिप्राय है ।
हिमालय के भेड़े (मेष) बकरे गाय घोड़े और अन्य जिव जन्तुओं के बालोंसे पाया जाता है कि वे उसी देश के अनुकूल है । पर मनुष्यके शरीर पर वैसे बालोंके न होनेसे अर्थात ग्रीनलैण्ड आदि देशोमें न जाने कितने दीर्घकालसे (जहाँ वनस्पति तक नहीं केवल मछली खाकर बर्फकी गुफाओं में रहना पड़ता है ) शीत के कारण शरीर ठिगना हो जाने पर भी उसके शरीरमें बालोंके न ठगने से प्रतीत होता है कि मनुष्य इतने ठन्डे देशोंमें रहने के लिए संसार में नहीं पैदा किया गया वह किसी विशेष विशेष स्थान में ही रहने योग्य है । जब मनुष्य पृथ्वीके अमुक अमुक स्थानमें ही रह सकता है तो यह कल्पना निकाल देने योग्य है कि मनुष्य धरती भर में सर्वत्र पैदा हो सकता है ।
अब यह बात निर्विवाद होगयी कि "मनुष्य प्रधान खाद्य दूध और फल है" दूध पशुओंसे और फल वृक्षोंसे पैदा होते है । इससे पाया जाता है कि मनुष्य के पाहिले वृक्ष और पशु हो चुके है तथा मनुष्य ऐसे मातदिल देशोंमें रह सकता है जहाँ पशु रह सकते हों और वनस्पति उग सकती हों । पहाड़ोंके सबसे ऊंचे बरफानी स्थानों और ग्रीनलैण्ड आदि देशों में वनस्पति नहीं उग सकती इसलिए वहां पशुपक्षी भी नहीं रहते, उससे ज्ञात होता है कि वनस्पति और पशुपक्षी भी मनुष्य की भाँति किसी मातदिल देशके ही रहने वाले है। अर्थात सारी सृष्टि किसी एकही स्थानमें पैदा हुई मालूम होती है ।
इस में आपको दो शंकाये हुई होंगी :- पहिली यह की " ग्रीनलैण्ड आदि में मनुष्य क्यों पाये जाते है " दूसरी यह की " दो प्रकारके सर्द और गर्म प्रदेशोंमें रहनेवाले, बालवाले और बिना बालवाले प्राणी एकही देशमें कैसे उत्पन्न हुए ?"
( 1 ) पहिले प्रश्न के उत्तर में तो आप समझ सकते है कि जब मनुष्य, वृक्ष और पशुओंको बिना अर्थात् दूध और फलोंके बिना रह ही नही सकता और पशु बिना वनस्पतिके नही रह सकते तो ऐसे देशमे जहा ये दोनो पदार्थ न होते हों वहा पैदाही नही हो सकता । विकासवादके अनुसार भी वह वहाँ पैदा नही हो सकता, क्योंकि मनुष्यके पहिले बन्दर होना आवश्यक है और बन्दर विजिटेरियन ( शाकाहारी ) है इसलिऐ वह बन्दर ऐसे देशमे मनुष्यको उत्पन्न नही कर सकता । अतः मालूम होता है कि उन देशोंके निवासी मनुष्य जल स्थलके परिवर्तनों, युद्धों और सभ्यता के समय प्रवासोंके कारण वहाँ गये होंगे और पश्चात् सृष्टि के परिवर्तनों के कारण वहाँ से न आसके होंगे, किन्तु प्रश्न यह है कि पशु पक्षी ऐसे स्थानों मे से किस प्रकार बाहर आ सकते है और किस प्रकार अपने अनुकुल स्थानों को जा सकते है ? इसके उत्तर में निवेदन है कि सृष्टि मे जब कभी कुछ अनुकुलता प्रतिकुलता होती है तो पशु पक्षियों को मालूम हो जाता है और वे वहासे चले जाते है ।
यदि किसी जगह कोई अज्ञात कुआँ बन्द हो और बाहरसे जाहिर न होता हो वहाँ आप भेड़ों को लेजाऐ भेड़ें उस कुऐके ऊपर जमीनसे आ जाएँगी । यदि उनका गोल बैठेगा तो कुएँ का हिस्सा छोड देगा । इनसे भुगर्भ विद्याका बहुतसा हाल मालूम होता है । किंतु शिक्षाका भिखारी केवल मनुष्यही बिना बतलाऐ कुछ भी मालूम नही कर सकता और आफत आनेपर वही फँस जाता है ।
(जो प्राणी जिस देशके अनुकुल बनाया गया है । वहाँ की भूमि, वहाँका जल, वायु उसको खींच लेता है । हिमालयके पक्षी अपने आप वहाँ चले जाते है, जल जन्तु आपसे आप पानीमे चले जाते हैं और पशु आपसे आप अपने अनुकुल जल वायुमे चले जाते है । मिसाल मशहूर है कि " ऊँट नाराज होता है तो पश्चिम को भागता है, क्योंकि मेरु देश पश्चिममे है और ऊँट मेरु देशों मे सुखी रहता है । पशु अपना अनुकुल प्रतिकुल स्थान जानने मे बड़े कुशल होते है ।)
(2) दूसरे प्रश्न का उत्तर कि ' सरद और गर्म देशों मे रहनेवाले प्राणी एकही स्थानमे कैसै हुऐ '? उत्तर बडा़ही युक्तियुक्त और सरल है । हम पहिले बता चुके है कि बीज किसी एक ही स्थान मे बोया जा सकता है अतः इस बृहसृष्टिका बीज जिससे दो प्रकारके सर्द और गर्म तासीर रखनेवाले वृक्ष और प्राणी उत्पन्न हुए है ऐसे ही देश मे बोया जा सकता था, जहाँ सरदी और गर्मी कुदरती तौरसे मिली हों और जो पृथ्वी के सब विभागों से अधिक ऊँची हो अब आप पृथ्वी के गोलेको हाथ मे ले और एक एक रेखा एक एक अंश देख डाले जहा ये दो गुण पाये जाये - अर्थात जहाँ :-
(1) सरदी और गरमी कुदरती तौरसे मिलती हों,
(2) और वह सरदी और गरमी मिलने वाला सन्धिस्थान पृथ्वीभरसे ऊँचा हो । बस उसीको सृष्टिका आदिस्थान समझले । इसमे अधिक प्रमाण देने की यद्यपि आवश्यकता नही है तथापि हम यहा कतिपय विद्वानों के वचन उद्धृत करते हैं ।
(1= जहाँ सरदी और गरमी कुदरती तौरसे मिलती है वह देश वनस्पति पशु और मनुष्यों के मिजाज के अनुकुल तथा सबका खाद्य उत्पन्न करनेवाला होता है । और सरद गर्म दोनों देशों मे जाने लायक मिजाजवाले प्राणि पैदा कर सकता है ।
2= आदि सृष्टि मे सबसे ऊँचे स्थान की इसलिये जरुरत है कि उस समय पृथिवी भरमे कही आँधी, कही तुफान, कहीं ज्वालामुखी, कहीं जल-प्लावन, कहीं भूकंप की वृक्षों के जलने का कारबनगैंस कहीं वृष्टि बडी़ धूमसे पडती है पर जो स्थान सबसे ऊँचा है न तो वहाँ पानी ( जलप्लावन ) आसके, न अग्नि-प्रपात निकल सके, न भूकंप से पृथिवी फट सके और न वहाँ आँधी हो । अतएव आदि सृष्टि के लिये सबसे ऊँचा ही स्थान उपयुक्त है । )
डाक्टर ई.आर.एलन्स, एल आर.सी.पी अपनी किताब ' मेडिकलखसे ' लिखते है कि " मनुष्य निसंदेह गर्म और मोअतदिल मुल्कों का रहनेवाला है, जहाँ कि अनाज और फल उसकी खुराक के लिये उग सकते है । इनसान की खालपर जो छोटे छोटे रोम है उनसे साफ मालूम होता है कि मनुष्य गर्म और मोअतदिल मुल्कों का रहनेवाला है । किन्तु बडे़ रोम सरद मुल्कों के रहनेवाले मनुष्यों के नही होते इसमे साफ प्रकट है कि मनुष्य बर्फानी मुल्कों में रहनेके लिये नहीं पैदा किया गया " ।
इसप्रकार विद्वान अलफर्ड रसल एस.एल.एल.डी.एल.एस. आदिने ' डारविन दी ग्रेट ' मे भी लिखा है । देखो सफा 460 सन् 1889 लंदन छापा और ऐसाही डाक्टर जबकिन साहबने भी लिखा है ।
मशहूर सोशलिस्ट कालचेंटर साहब कहते है कि " मनुष्य मोअतदिल गर्म मुल्कों का रहनेवाले है, कुदरती फल अनाजकी खुराक खाते हैं और वहीं मुल्क उनका स्वाभाविक निवास स्थान है, जहाँ ऐसी खुराक पैदा होती हो " । देखो रसाले सत्यका बल 28 वुल्लियात प○ लेखराम-आर्य मुसाफिर ।
उपरोक्त विद्वानों की जाच भी बतलाती है कि ऐसा ही मुल्क मनुष्यका जन्म स्थान हो सकता है जो गर्म मोअतदिल हो यह "गर्म मोअतदिल " वाक्य बहुतही विज्ञान भरा है । मोअतदिल उर्दू मे सम शीतोष्ण को कहते है । अर्थात् जहाँ सरदी और गर्मीका मेल हो, किंतु जहा गर्मी का हिस्सा अधिक हो वहो देश गर्म मोअतदिल कहलाता है और वही देश मनुष्यका असली वतन है ।
इस आदि भूमिका कर्ता प्रोफेसर मैक्समूलर बड़ी जाफिशानीसे जॉच कर बतलाते है कि ' मनुष्य जातिका आदि ग्रह एशियाका कोई स्थल होना चाहिए, यद्यपि उन्होंने एशिया में कोई स्थान निर्दिष्ट नहीं किया किंतु अपनी पुस्तकों मे इसी प्रकार से विचार प्रकट किये है। परन्तु इन विषयोंकी अधिक खोज करनेवाले अमेरिका निवासी विद्वान डेविस ' हारमोनिया ' नामी पुस्तक के पाँचवें भागमें जर्मनी के प्रोफेसर ' ओकन ' की साक्षी सहित इस बातको प्रतिपादन करते है कि -
'क्योंकि हिमाचल सबसे ऊँचा पहाड है इसलिये आदिसृष्टि हिमालयके निकट ही कही पर हुई ' ( देखो डेविस रचित हारमोनिया भाग 5 पृष्ठ 328 )
पहिले और इन दोनों युरोपीय विद्वानों की साक्षीसे यह बात सिद्ध होगई कि मनुष्यों की आदिसृष्टि 'गर्म मोअतदिल और पृथिवी के सबसे ऊँचे स्थान भे हुई साथही वह देश और स्थान भी मालूम होगया कि वह देश एशिया और स्थान हिमालय है जो शीत और उष्ण से मिलता और पृथिवी भरमे सबसे ऊचा है '। अब हम सिद्ध करते है कि वह स्थान कौनसा है ?
मुंबई की ज्ञान प्रसारक मण्डलीकी प्रेरणासे फ्रामनी कावमजी हॉल मे संसारकी साक्षी मिस्टर खुरशेदजी रस्तमजी ( जो एक मशहूर विद्वान थे ) 'मनुष्यों की मूल जन्भ स्थान कहाँ था ' इस विषयपर व्याख्या दिया था । उहका सारांश यहाँ उद्धृत करते है ।
" जहाँ से सारी मनुष्य जाति संसार में फैली । उस मूलस्थानका पता हिन्दुओं, पारसियों, यहूदियों और क्रिश्चियनोंके धर्म पुस्तकों से इस प्रकार लगता है कि यह स्थान कही मध्य एशिया मे था । युरोपीय निवासियों की दन्तकथाओ मे वर्णन है कि हमारे पूर्वज राजा कहीं उत्तर मे रहते थे पारसियों की धर्म पुस्तकों मे वर्णन है कि जहाँ आदि सृष्टि हुई वहाँ 10 महिने सरदी और दो महिने गर्मी रहती है । माऊट-स्टुअर्ट , एलफिन्स्टन, थरनस आदि मुसाफिरों ने मध्य एशिया की मुसाफिरों करके बतलाया है कि इन्दुकुश पहाड़ोंपर 10 महिने सरदी और दो महिने गरमी होती है । इससे ज्ञात होता है कि पारसी पुस्तकों मे लिखा हुआ ' ईरानवेज ' नामका मूलस्थान जो 37° से 40° अक्षांश उत्तर तथा 86° से 90° रेखांश पूर्वमे है निसंदेह मूल स्थान है, क्योंकि वह स्थान बहुत उचाईपर है । उसके ऊपरसे चारों ओर नदियाँ बहती है । इस स्थान के ईशान मे कोणमे 'बालूर्ताग ' तथा 'मुसाताग' पहाड है । ये पहाड 'अलवुर्न' के नामसे पारसियोंकी धर्म पुस्तकों और अन्य इतिहासोमें लिखे है । बलूर्तागसे 'अमू' अथवा 'आक्सरा' और 'जेक जार्टस' नामकी नदिया 'अरत' सरोवर में होकर बहती है । इसी पहाड में से 'इन्डस' अथवा 'सिन्धु' नदी दक्षिणकी ओर बहती है । इसीचर के पहाडों मे से निकलकर बडी़ बडी़ नदियाँ पूर्व तरफ चीन मे और उत्तर तरफ साइबेरिया में भी बहती ऐसै रम्य और शांत स्थान मे पैदा हुए अपने को आर्य कहते थे और इस स्थान को 'स्वर्ग' का करते थे " यह देश उत्तर इन्दुकुश से लेकर तिब्बत तक फैला था यहीं कहीं कैलास और मान सरोवर भी था यही कारण है कि स्वर्ग और त्रिविष्टप ( तिब्बत ) पर्याय माने गये है । अमरकोश में लिखा है कि ' स्वरव्यय् स्वर्ग नाक त्रिदिव त्रिदशालयाः । सुरलोको द्यो दिवौ द्वे स्त्रिया क्लीबे त्रिविष्टपम् , अर्थात् स्वर्ग और त्रिविष्टप ( तिब्बत ) एक ही स्थान है ।
दुनियाभर के विद्वानों और एतदेशीय पण्डितों की सम्मतियों को ध्यान मे रखकर अपने समयका सबसे बडा़ आर्यावर्तीय विद्वान स्वामी दयानंद सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश मे लिखते है कि ' आदिसृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई ' । तिब्बत यथार्थ मे दक्षिणकी गर्मी और उत्तर की सरदी को जोडता है वह ऊँचा भी है तथा मनुष्यके मिजाज के अनुकुल और उसका खाद्यभी उपजानेवाला है । अतएव अब हम अपने द्वितीय प्रश्न का उत्तर खतम करते हुए विद्वानों का ध्यान इसओर आकर्षित करते है कि आदि सृष्टि हिमालय पर ही हुई और वहीसे मनुष्य सारी पृथिवी मे गये । यह ख्याल गलत है कि मनुष्य पृथिवी के हरभाग मे पैदा हुए ।
पंडित रघुनानंदन शर्मा:- अक्षरविज्ञान

ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम



ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम इति शहीद (१९६५) चलचित्रगीतस्य संस्कृतरूपान्तरणम्

ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम
तेरी राहों में जां तक लुटा जाएंगे।
फूल क्या चीज़ हैं तेरे कदमों में हम
भेंट अपने सरों की चढ़ा जाएंगे॥
ऐ वतन ऐ वतन .....................॥
मातृभूः ! मातृभूः! ते पणामो वयम्।
त्वत्पथे जीवनं लोटयामो वयम्॥
पादयोस्तेऽर्पणाय पुष्कराणामलम्।
स्वीयमस्तकानुपायने वहामो वयम्॥
मातृभूः मातृभूः........................॥
कोई पंजाब से कोई महाराष्ट्र से।
कोई यू.पी. से है कोई बंगाल से॥
तेरी पूजा की थाली में लाए हैं हम।
फ़ूल हर रंग के आज हर डाल से॥
नाम कुछ भी सही पर लगन एक है।
जोत से जोत दिल की जगा जाएंगे॥
ऐ वतन ऐ वतन.......................॥
कोऽपि पञ्जाबतः कोऽपि महाराष्ट्रतः।
यू.पि.तः कोऽपि वा कोऽपि बंगालतः॥
त्वत्कपूजाकृते स्थालिकायां सुमम् ।
अद्य चित्वाऽऽगताः स्मः क्षुपेभ्यः क्षुपम्॥
नाम कामं विभिन्नं समं भावनम्।
ज्योतिषा ज्वालयामो मनोज्योतिषम्॥
मातृभूः मातृभूः.........................॥
तेरी ज़ानिब उठी जो कहर की नज़र।
उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम॥
तेरी धरती पे है जो कदम ग़ैर का।
उस कदम का निशां तक मिटा जाएंगे॥
जो भी दीवार अब आयेगी सामने।
ठोकरों से उसे हम गिरा जाएंगे॥
ऐ वतन ऐ वतन.....................॥
ईतयः कुदृशामुद्गतास्त्वामभि।
ताः निपात्यैव नीचैः श्वसामो वयम्॥
पादचारं न्यसेद् योऽपरस्ते स्थले ॥
पादचिह्नानि तस्याखनामो वयम्॥
भित्तिका या पुरः दर्शयेदुद्धताम्।
पादघातैः शिलाः त्रोटयामो वयम्॥
मातृभूः मातृभूः वाक्पणे स्मो वयम्।
त्वत्करथ्यासु स्वं लोटयामो वयम्॥

Preliminary Questions on Darwinian Theory





Preliminary Questions on Darwinian Theory

Recently, the statement of the MoS, Union Human Resource Development, Honourable Dr. Satypal Singh that the human is not originated from monkey, became the reason for the Indian intellectuals stir. Some great people of scientific thinking are calling it a communal stereotypical orthodox thinking. I urge those greats that this idea of the minister is not a conservative but a part of Vaidic science based on strong logics. It is not that only some Indian scholars oppose Darwinian theory, but many European scientists also deny it. I want to question the evolutionists of the world, who oppose it. These questions are preliminary, more questions will be asked if these are answered-

On Biological Development

1. Evolutionists tells that the human gradually developed from monkey, which was early an amoeba. Tell us how did the amoeba originated?

2. If life came from another planet, how did it originate there? When there can be an origin, then why can not it be on this earth?

3. If Amoeba was born on a planet with chemical reactions, then why can not the origin of the human’s sperm and the ovum be produced?

4. It is said that the wings of the beings are grow, whenever there is a need to fly, but from when the man has been born, he has been trying to make an airplane to fly, why don’t his wings grow? If this happens then the invention of the airplane is not required.

5. In the cold regions, it is said that long hair is developed on the body, then why should not the hair like the hair of the bear, living in cold countries? Why did they need the blanket etc.?

6. The giraffe's neck became so long, because it used to eat trees leaves when the grass on the ground dried up. Just tell how long remained the grass dry and the leaves of the trees green? Then the goat still eats leaves with two legs on the tree, why did its neck not become long?

7. The monkey's tail disappeared, and he became a human. Can anyone tell me how the monkey's tail disappeared? Did he stop using the tail? Can anyone tell us that what uses monkey do by his tail and why he stopped that use? If this is the case, then nose of the human being and the ears could disappear and only a hole should remain. Human beings have been cutting their hair and nails for millions of years, even then these are growing continuously, why?

8. Why didn’t all monkeys develop and become human? Some have been running as Amoeba yet, and we have become human, what is this?

9. It is said that snakes had feet in early ages, slowly they disappeared. Just think how their legs disappeared, while the feet of all other legged beings have not worn at all.

10. How the without bone beings became the bone having? Why did they need the bones?

11. Where did the chain of creatures formed between monkey and man?

12. Why did development stopped at man? Who paused it? Is there no need for that development?

Intellectual and Linguistic Development

1. It is said that human beings gradually developed the intellect, then the question is why there is no intellectual development in monkeys and other creatures?

2. At the time of human birth, there were only animal and birds on this earth, then why didn’t human learn their behaviour? How did human behaviour develop? Why there is not much intellectual development in millions of tribal?

3. Cows, buffaloes, horses, sheep, goats, camels, elephants have been human pets for millions of years. They didn’t learn human language or human behaviour; then how did this development happen in only humans?

4. Junk burning with lamps for billions of years, could not even developed intellectual development that prevent itself from burning, and the monkey became so intelligent as human that it is ready to travel to Mars? Did not even the wisdom grow into evolutionists to know this? Earlier, snake charmer caught the snake playing bean and used to do the same today, but there was not so much development in the snake that he did not get caught by the snake charmer.

5. The men were much richer than the present in terms of force, memory power and physical resistance, why this diminution happened today, when the development should have been done?

6. Grammar of Sanskrit language, which is the most ancient language, is rich and systematic than all the languages of the modern world, then why there is a diminution in place of development?

7. The modern science is at the back in many perspectives than the science presented in the books of ancient sages and Vedas; I am going to prove it soon, then how there is a diminution in the field of science? Earlier, the sages used to know about the creation only by intuition, then today that knowledge does not get even through many resources. How did this inverse happen?

Well, if there was intellectual growth in animal and birds, then none of the animal or bird will be in control of man. What kind of ignorance is it that believes that there is no intellectual development in animal or birds, but physical development transforms them into human beings, and there is no physical development in humans, but only linguistic and intellectual development occurs. Will the evolutionists tell me the reason of this?

Today, the person who speaks the language of evolution or the Pauranik (Orthodox Hindu), can tell Shri Hanuman, a monkey, he doesn’t have a serious knowledge of the Valmiki Ramayana. In fact, Vanar, Riksh, Gridh, Kinnar, Asura, Devas, Nag etc. were the only various classes of the human race. Identifying the interventions (mis concepts) in historical texts is worth hard work and intelligence.

On the other side, I want to request briefly to the enlightened people, who believes in the publication of a paper in any scientific journal as the criterion of authenticity.
1. The letters of both sides are published in these journals, in favour of Big Bang Theory and in the favour of eternal Universe theory, then which theory do you believe to be true?

2. Theories of black holes and against black holes are also published in these magazines, then whom we should believe in the true?

3. Both the theories of the expansion of the universe and against the expansion of the universe are published, then whom should we believe to be true?

Many such examples can be given. For this reason, it is not necessary that we must take the proof of truth from a particular class? In our Vaidic and Indian perspective, the conclusions derived from proper reasoning, sacred profound intuition and meditation (not physical exercise) are more authentic than the experiments, observations and mathematics performed by current resources. If experimentation, observation and mathematics are not compatible with intuition and proper reasoning, then the entire labour of the scientists can be in vain. This is the reason that many contradictory theories are available even after the availability of experiments, trials, observations and mathematics, and spending trillions of dollars per year on these resources, all are telling themselves the truth. If science universally believes in mathematics and experiments, then will anybody take help of mathematics and experiments on Darwin’s Evolution?
For this reason, I request my honourable scientists and enlightened people of the country and the world that they should not introduce themselves as intellectual slave by opposing every antique wisdom of old knowledge and blind following the modern system. Try to abandon the falsehood and acceptance of truth with the help of a logical sight. Yes, it is definitely objectionable to try standing up any communal conservative thinking before science.
Acharya Agnivrat Naishthik

Monday, January 22, 2018

नींव के पत्थर हरियाणा के भजनोपदेशक




नींव के पत्थर हरियाणा के भजनोपदेशक

लेखक: सहदेव समर्पित सम्पादक शांतिधर्मी पत्रिका,जींद, हरियाणा

महर्षि दयानन्द ने 1875 ई0 में मुम्बई में और 1877 में लाहौर में आर्यसमाज की स्थापना की। ऋषि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने प्राचीन आर्य धर्म के प्रचार के साथ-साथ समाज में व्याप्त कुरीतियों व अंधविश्वासों के विरुद्ध ऐतिहासिक आन्दोलन किया, जिसका प्रभाव आज समाज और राष्ट्र के हर क्षेत्र में दिखाई देता है। महर्षि दयानन्द की इच्छा थी कि उन जैसे सहस्रों उपदेशक हों और वे मानव मात्र के कल्याण के लिये अंद्द परम्पराओं को समाप्त करते हुए वेद का प्रचार करें। स्वामीजी की इस प्रेरणा से आर्यसमाज में इस प्रकार के सहस्रों उपदेशक, पत्रकार, लेखक, साहित्यकार, कवि, गीतकार, भजनोपदेशक तैयार हुए जिन्होंने देश-विदेश में वेद-प्रचार की धूम मचा दी। इस क्षेत्र में भजनोपदेशकों का मोर्चा सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण था। उत्तर भारत, विशेषकर हरियाणा के संदर्भ में यह एक कठिनाई भरा मार्ग था। इस क्षेत्र में सांग का जबरदस्त प्रभाव था और शिक्षा का प्रचार-प्रसार न के बराबर था। आर्यसमाज के भजनोपदेशकों ने इस चुनौती को स्वीकार किया था और यह मोर्चा जीतकर दिखाया था। उन्हें न मान-सम्मान की चिन्ता थी न अर्थ-लाभ की। स्वयं ही अपरिचित क्षेत्र में, संसाधन न होने पर भी अपना मंच तैयार करना, स्वयं ही श्रोताओं का आह्वान करना, स्वयं ही संचालन और व्याख्यान करना- यह आर्यसमाज के भजनोपदेशकों का ही कार्य था। पोपों व विधर्मियों के आक्रमण व बहिष्कार से अपने स्तर निपटने वाले, आर्यसमाज द्वारा संचालित आंदोलनों में जेलयात्रा करने वाले ‘पीर बावर्ची भिश्ती खर’ की भूमिका निभाने वाले भजनोपदेशकों को अपने नाम और कीर्ति की इच्छा नहीं थी। तभी इनके त्याग और बलिदान का कोई व्यवस्थित इतिहास सुरक्षित न रखा जा सका। पुस्तकों में जिनका इतिहास चाहे न लिखा जा सका हो, पर हरयाणा के गांव गांव में इनका प्रभाव देखा जा सकता है। बड़ी आयु की माताएँ आज भी विवाह आदि के अवसरों पर उन ज्ञात-अज्ञात भजनोपदेशकों के गीत गातीं देखी जा सकती हैं। हम इन पंक्तियों के माध्यम से हरयाणा के कुछ ऐसे ही भजनोपदेशकों का उल्लेेख कर रहे हैं, जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से समाज में सात्त्विकता का प्रचार किया और दयानन्द के कार्य को आगे बढ़ाया।

पं0 बस्तीराम

दादा बस्तीराम को हरियाणा का आद्य भजनोपदेशक कहा जा सकता है, जिन्होंने ऋषि दयानन्द के समय में और उनकी सभाओं में भी अपने तराने प्रस्तुत किये। पं0 बस्तीराम का जन्म आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत् 1898 विक्रमी में झज्जर के खेड़ी सुलतान गांव में पं0 रामलाल के गृह में हुआ था। 1924 विक्रमी में कुम्भ मेले के अवसर पर स्वामी दयानन्द के विचारों को सुनकर आप अत्यंत प्रभावित हुए। उसके बाद दिल्ली दरबार में स्वामी दयानन्द जी के उपदेशों को सुनकर आपने स्पष्ट रूप से वैदिक धर्म को स्वीकार करने की घोषणा कर दी। गाते तो पहले भी थे, पर अब वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिये गाने लगे। स्वामी दयानन्द के रेवाड़ी आगमन पर स्वामी जी के व्याख्यान के पहले और बाद में आपका गायन होता था। अपना शेष जीवन पं0 बस्तीराम ने आर्यसमाज के प्रचार में लगाया। लगभग 35 वर्ष की आयु में शीतला रोग के कारण आप नेत्र ज्योति विहीन हो गए थे, पर नेत्रहीनता उनके संकल्प में बाधा नहीं बनी। उन्होंने कोई बहुत बड़ी औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त की थी, परन्तु उनकी रचनाओं में उनके स्वाध्याय और प्रखर बुद्धि के दर्शन होते हैं। उनकी गाने की एक विशिष्ट शैली थी। वे इकतारे पर बहुत मीठी लोकधुन में गाते थे जिसे सुनकर जनता मंत्र मुग्द्द हो जाती थी। उनका पाखण्ड-खण्डन का तरीका बहुत प्रखर और उग्र था। वे पोप लीला पर बहुत तीखे प्रहार करते थे। उनके भजनों का प्रभाव आज भी हरयाणा के गांव गांव में देखा जा सकता है। अपने प्रभावशाली प्रचार के कारण वे दादा बस्तीराम के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब कुछ विरोधियों ने कहना शुरु कर दिया कि आर्यसमाजियों ने दयानन्द को उनके देहान्त के बाद ऋषि कहना शुरु कर दिया, उनके जीवन काल में किसी ने उनको ऋषि नहीं कहा तब उनका एक गीत तो ऐतिहासिक प्रमाण बन गया जो वे ऋषि के जीवन काल में गाते थे- ‘बस्ती राम ऋषि का चेला इकतारे पै गावै सै।’ लगभग 117 वर्ष की आयु में 26 अगस्त 1958 को आपका देहान्त हुआ। आपने दर्जनों भजन पुस्तकों की रचना की, जिनमें पाखण्ड ख्ण्डनी बहुत प्रसिद्ध है। स्व0 चैधरी मित्रसेन आर्य ने ‘पं0 बस्तीराम सर्वस्व’ के नाम से उनकी सभी रचनाओं का पुनप्र्रकाशन कराया था। खेद है कि पिछले दिनों रोहतक में आरक्षण के नाम पर हुए उपद्रव में वह अनमोल साहित्य अग्नि भेंट हो गया।

स्वामी भीष्म

स्वामी भीष्म जी का जन्म 7 मार्च 1859 ई0 में कुरुक्षेत्र जिले के तेवड़ा ग्राम में श्री बारूराम पांचाल के गृह मेें हुआ था। बचपन में इनका नाम लाल सिंह था। इनकी बचपन से ही अध्ययन में रूचि थी। आपने 11 वर्ष की आयु में गाना शुरु कर दिया था और उस समय उपलब्ध नवीन वेदान्त की बहुत सी पुस्तकों का अध्ययन किया था। प्रबल वैराग्य के कारण 1881 में इन्द्रिय छेदन की कड़ी शर्त का पालन करके एक पौराणिक साधु से संन्यास लिया। उन्होंने इनका नाम ब्र0 आत्मप्रकाश रखा, पर आप को भीष्म के नाम से जाना गया। इनकी आर्यसमाजी बनने की कथा बड़ी रोचक है। आर्यसमाज को आप धर्म विरोधी समझते थे और आर्यसमाज का नाम सुनना भी पसन्द नहीं करते थे। एक बार बली ग्राम के डेरे में कोई नया नया आर्यसमाजी इनको साधु समझकर सत्यार्थ प्रकाश के किसी प्रकरण को समझने के लिये आया। स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश का नाम सुनकर अपनी घृणा प्रकट की। जिज्ञासु के बार बार आग्रह करने पर स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश को देखा तो उसके अन्दर डूबते चले गए। जिज्ञासु को समझाते समझाते वे स्वयं ही समझ गए और उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। उस समय स्वामीजी की आयु 37 वर्ष की थी। उसके बाद तो स्वामी जी आर्यसमाज के प्रचारक बन गए। उन्होंने दिल्ली को अपना केन्द्र बनाया और देश भर में आर्यसमाज का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया और अनेक क्रांतिकारियों से उनके आत्मीय संबंध रहे। स्वामी श्रद्धानन्द जी के अछूतोद्धार व शुद्धि के कार्यों में उनका अप्रतिम योगदान रहा। यहाँ तक कि स्वामी जी स्वामी श्रद्धानन्द जी के आदेश से विधर्मियों द्वारा अपहृत हिन्दू कन्याओं को छुड़ाकर लाते थे और उनको पुनः वैदिक धर्मी बनाते थे।

स्वामी भीष्म जी पूरे देश में विशेषकर उत्तर भारत में बहुत प्रभावशाली भजनोपदेशक के रूप में जाने गए। उनके प्रभाव का यह आलम था कि दिल्ली में एक बार एक पौराणिक साधु ने उनका भजनोपदेश सुना तो वह आर्यसमाजी हो गए। वे स्वामी रामेश्वरानन्द थे जो अनेक बार सांसद रहे। उनकी भजन पार्टी का अनेक बार सांगियों से मुकाबला हुआ। उनके शिष्य स्व0 पं0 चन्द्रभानु आर्य के अनुसार एक बार उ0 प्र0 के एक गांव में स्वामी जी की भजन मण्डली और वहाँ के मशहूर सांगी होशियारा का एक साथ ही एक गांव में जाना हो गया। कई दिन तक सांग और भजनों का आमना सामना होता रहा। सांग में हाजरी रोज घटती रही और स्वामी जी के प्रचार में बढ़ती रही। आखिर सांग पार्टी वहाँ से प्रस्थान कर गई और स्वामीजी ने जमकर प्रचार किया।

स्वामी भीष्म जी ने 124 वर्ष की दीर्घायु पाई। उन्होंने बहुत दीर्घकाल तक गाया और बहुत कुछ लिखा। डाॅ0 भवानीलाल भारतीय जी ने स्वामी जी द्वारा लिखित पुस्तकों की सूची स्वामी भीष्म अभिनन्दन ग्रंथ में दी है। खेद है कि उनका सम्पूर्ण साहित्य अभी तक पुनप्र्रकाशित नहीं हो पाया है। उनके भजनोपदेशक शिष्यों की सूची भी बहुत लम्बी है। हरियाणा में जन्मे उनके प्रमुुख शिष्य स्वामी विद्यानन्द, स्व0 चैधरी नत्थासिंह, स्व0 पं0 ताराचन्द वैदिक तोप, स्व0 पं0 चन्द्रभान, स्व0 पं0 ज्योति स्वरूप, स्व0 पं0 हरलाल, स्वामी रुद्रवेश आदि ने विशेष यश प्राप्त किया। 24 मई 1981 को कुरुक्षेत्र में भारत के गृहमंत्री ज्ञानी जैलसिंह की अध्यक्षता में आपका सार्वजनिक अभिनन्दन हुआ। 8 जनवरी 1984 ई0 को आपका निधन हुआ।

चौधरी ईश्वरसिंह गहलोत
चौधरी ईश्वरसिंह आर्यसमाज के बहुत प्रभावशाली कवि एवं भजनोपदेशक थे। आपका जन्म सन् 1885 ई0 में दिल्ली के ग्राम काकरोला मेें हुआ था। आपके पिताजी का नाम श्री रामकिशन था जो एक साधारण किसान थे। ईश्वर सिंह किशोरावस्था में ही थे कि उनके पिता का देहान्त हो गया। ईश्वरसिंह बचपन से ही आर्यसमाज से प्रभावित थे। गाने का भी शौक था। पैतृक व्यवसाय कृषि करते करते आर्यसमाज की गतिविधियों में भाग लेते थे। इसी क्रम में आर्यसमाज नजफगढ़ के उत्सव में मास्टर नत्थूसिंह के भजन सुने और उन जैसा बनने का संकल्प ले लिया। मास्टर नत्थूसिंह बहुत पुराने और प्रभावशाली भजनोपदेशक थे। इनका उल्लेख हरयाणा आर्यसमाज के प्रारम्भिक नेता डाॅ0 रामजीलाल हुड्डा ने अपनी डायरियों में किया है। अगली बार के उत्सव में ईश्वरसिंह ने आर्यसमाज में भजन प्रस्तुत किये जो बहुत पसन्द किये। आर्यसमाज के वरिष्ठों ने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया।

चैधरी ईश्वरसिंह का कण्ठ बहुत सुरीला था। साथ ही वे बहुत ऊँची और मीठी आवाज में गाते थे। उन्होंने गायन और लेखन की एक नई शैली का विकास किया। उनकी प्रसिद्धि और प्रभाव के बारे में आज भी बुजुर्गों से अनेक किंवदन्तियाँ सुनी जा सकती हैं। कहते हैं कि उनके प्रचार में 80 लालटेन जलती थीं। यह उपस्थिति का पैमाना है। दूर दूर से लोग उनको सुनने आते थे। कुरुक्षेत्र और भैंसवाल के ऐेसे अनेक प्रसंग हैं जब ग्रामीणों ने आर्यसमाज के बड़े विद्वानों के भाषण को रोककर चैधरी ईश्वरसिंह के भजन सुनाने की मांग की। चैद्दरी ईश्वरसिंह के भजनों के आगे सांगियों के ठुमके फेल हो जाते थे। शांतिधर्मी के संस्थापक स्व0 पं0 चन्द्रभानु आर्य भजनोपदेशक अपने गुरु स्वामी भीष्म जी के हवाले से लिखते हेैं कि करनाल के गांव मुंडलाना में चैधरी ईश्वरसिंह का मुकाबला पं0 लखमीचन्द की सांग पार्टी से हुआ। 13 दिन तक मुकाबला चलता रहा। आखिर सांगी भाग गए और ईश्वर सिंह 14 वें दिन भी विजय पताका फहरा कर गए। चैधरी ईश्वरसिंह लेखनी के भी धनी थे। उन्होंने हजारों भजनों की रचना की जो सैंकड़ों पुस्तकों में समाहित है। उनकी रचनाओं का पुनप्र्रकाशन परममित्र मानव निर्माण संस्थान की ओर से दो खण्डों में हुआ है। चैधरी ईश्वरसिंह ने समुदाय के उत्थान में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। हरयाणा में शिक्षा का प्रचार नहीं था। लाहौर में पढ़ने वाले चार मित्रों ने हरयाणा में शिक्षा संस्थान खोलने का निश्चय किया। रोहतक, हिसार और संगरिया में ये शिक्षण संस्थाएँ खुलीं। चैधरी ईश्वरसिंह ने इस प्रकरण पर ‘बलदेव भेंट’ लिखी और इन संस्थाओं का व्यापक प्रचार प्रसार किया। गुरुकुल कुरुक्षेत्र, गुरुकुल मण्टिडु के प्रचार में भी सहयोग किया। गुरुकुल भैंसवाल के लिये भी इनका विशेष सहयोग रहा। इनका देहान्त 1958 ई0 में हुआ।

स्वामी नित्यानन्द

स्वामी नित्यानन्द का संन्यास पूर्व नाम चैधरी न्योनन्दसिंह धनखड़ था। आप चैधरी ईश्वरसिंह के शिष्य थे। आपका जन्म किलोई जिला झज्जर में सन 1887 में एक धार्मिक किसान श्री झण्डाराम के गृह में हुआ था। आपने हरयाणा के ग्राम ग्राम में आर्यसमाज का प्रचार किया। आप खड़ताल पर गाते थे। इनका विशालकाय शरीर था। आपके भजन और उपदेशों का जनता पर जादू जैसा प्रभाव पड़ता था। वे पाखण्ड, अंधविश्वास और अविद्या पर कठोर प्रहार करते थे। वे निर्भीक, निर्लोभ और सच्चे साधु थे। इनका सादगीपूर्ण जीवन भी प्रेरणास्रोत था। स्वामी नित्यानन्द सरल और लोकप्रिय तर्जों पर भजनों की रचना करते थे। इनके भजनों के द्वारा आर्यसमाज का जबरदस्त प्रचार हुआ। ग्रामीण बहनों ने इनकी रचनाओं का बहुत प्रयोग किया। आज भी स्वामी नित्यानन्द के भजन गांव गांव में माताओं की जुबान से सुने जा सकते हैं। ये वास्तव में लोककवि थे। इनकी कुछ रचनाओं का संग्रह हरयाणा में प्रशासनिक अधिकारी श्री महेन्द्रसिंह धनखड़ ने प्रकाशित कराया था।

स्वामी नित्यानन्द जी ने गुरुकुलों, शिक्षण संस्थाओं के प्रचार में अप्रतिम योगदान किया। लड़कियों को गुरुकुलों में पढ़ाने के लिए प्रेरित किया और आर्य शिक्षा संस्थाओं के लिये धन संग्रह का कार्य किया। उन्होंने स्वयं भी कासनी में कन्या पाठशाला खोली। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया। हैदराबाद और लोहारू के आन्दोलनों में आपने अनेक यातनाएँ सहीं। लोहारू में नवाब के गुण्डों के आक्रमण से आपको सिर पर गंभीर चोट आई थी। महात्मा भगत फूलसिंह के आप अनन्य सहयोगी थे। आपने अपने जीवन में अनेक आर्यसमाजों की स्थापना की। 24 अप्रैल 1977 को आपका देहान्त हो गया।

स्वामी केवलानन्द

आपका जन्म ग्राम कारौली जिला रेवाड़ी में एक ब्राह्मण परिवार में 1871 ई0 हुआ था। आप स्वामी श्रद्धानन्द के प्रभाव से आर्य समाज में आये। आप इकतारा और खड़ताल पर गाते थे। आपने पाखण्ड और अंधविश्वास के निवारण में और आर्य द्दर्म के प्रचार में आजीवन परिश्रम किया। उन्होंने अपना कोई मठ या आश्रम नहीं बनाया। वे त्यागी, तपस्वी साधु थे। प्रचार के साथ साथ उन्होंने समाज सुधार के लिए धरातल पर कार्य किया। उन्होंने कसाईयों को गाय बेचने पर अपने क्षेत्र में पंचायती तौर पर प्रतिबंध लगवाया। उन्होंने अनेक भजनों की रचना की। उनकी तीन भजनों की पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं जो अब प्रायः नहीं मिलती हैं। (पोप की पोपणी हमारे संग्रह में है।) उन्होंने स्वतंन्त्रता आन्दोलन में भी भाग लिया। हैदराबाद आन्दोलन में जेलयात्रा की और लोहारू आन्दोलन में यातनाएँ सहीं। अहीरवाल क्षेत्र के आर्य नेता महाशय हीरालाल के साथ उनका अहीरवाल के गांव गांव में आर्यसमाज को पहुंचाने में अतुल्य योगदान रहा है। आपका निद्दन 1943 में हो गया।

महाशय बुद्धिधर

आपका जन्म 1895 में लुहाना जिला रेवाड़ी में हुआ था। आप आर्य समाज के बड़े प्रभावशाली भजनोपेदेशक थे। आपने समाज को अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने में महती भूमिका निभाई। इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं- ‘अमृतगीता’ और ‘सतसार’। आपका सिद्धान्त ज्ञान भी गहन था। अनेक स्थानों पर पौराणिकों और विधर्मियों से शास्त्रार्थ किये और विजय प्राप्त की।


चौधरी पृथ्वीसिंह बेधड़क


चौधरी पृथ्वीसिंह बेधड़क आर्यसमाज के अद्वितीय प्रतिभाशाली और प्रभावशाली भजनोपदेशक थे। आपने भजनोपदेश की नई फास्ट शैैली को जन्म दिया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार आप अनेक प्रकरणों पर एक साथ शुरुआत करते थे और चामत्कारिक ढंग से उसका समापन करते थे। प्राचीन हरियाणा के गांव गांव में आपका यश अब भी दुखा सुना जा सकता है। आप अत्यंत प्रतिभाशाली कवि थे। आपकी रचनाओं में अनुप्रास की निराली छटा दिखाई देती है। आपने भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास की अनेक कथाओं को भजनों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनके भजनों का संग्रह भी चैद्दरी मित्रसेन आर्य ने पुनः प्रकाशित करा दिया था। आपका जन्म ग्राम शिकोहपुर जिला बागपत में हुआ था। भजनोपदेश के साथ साथ आपका सामाजिक प्रभाव भी अद्वितीय था। आपके भजनों में एक अलग ही आकर्षण था। पृथ्वीसिंह बेधड़क के नाम में आज भी आकर्षण है।


पं0 बहोतराम
आपका जन्म ग्राम जुडौला, जिला गुड़गांव में एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ। आपने पुराणों का विशेष अध्ययन किया था। आपके भजनों में अवैदिक मान्यताओं का तर्कपूर्ण प्रामाणिक खण्डन मिलता है। पोपों का तो आपका नाम सुनकर ही हृदय कांपता था। आप रात को प्रचार करते। सुबह लोगों को यज्ञ में भाग लेने के लिये पे्ररित करते। संध्या हवन सिखाते और यज्ञोपवीत प्रदान करते। इनकी एक पुस्तक हमारे संग्रह में विद्यमान है।

दादा शिवनारायण

पं0 शिवनारायण का जन्म जींद के गांव डहोला में हुआ था। आप लोकप्रिय तर्जों में गाते थे। आप पाखण्ड का बहुत कठोर शब्दों में खण्डन करते थे। आपने आर्य प्रतिनिद्दि सभा पंजाब संयुक्त के माध्यम से भी प्रचार किया। कठोर खण्डन और शास्त्रार्थ के बीच कई बार शस्त्रार्थ भी हो जाता था। 1953 ई0 (अनुमानित) में उचाना मण्डी में मृतक-श्राद्ध का खण्डन करने पर लोग लाठियाँ जेलियाँ लेकर लोग इनको मारने चढ़ आये थे। स्व0 पं0 चन्द्रभान आर्य ने चिमटा लेकर उनको ललकारा। कुछ समय में आर्य समाज के लोग भी आ गए और मुश्किल से मामला शांत हुआ। आर्यसमाज के पुराने बुजुर्ग अब भी इनका नाम बड़े सम्मान से लेते हैं। खेद है कि इनकी कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है। इनके परिवार के लोग भी अब संभवतः दिल्ली में रहते हैं।


स्वामी बेधड़क

आपका जन्म जींद के धमतान गांव में एक दलित (द्दाणक) परिवार में हुआ था। आप आर्यसमाज के जांति पांति के विरुद्ध आन्दोलन के जीवित जाग्रत उदाहरण थे। आप अपने प्रचार में कहते थे- आर्यसमाज ने मुझे स्वामी बना दिया। आप वास्तव में ही बेधड़क थे। एक बार पानीपत के गांव बापौली में स्व0 पं0 चन्द्रभानु आर्य के साथ गये थे। (तब प्रायः जूनियर भजनोपदेशक की पार्टी के साथ सीनियर भजनोपदेशक भेजे जाते थे।) गांव में पहुंचने में देर हो गई। प्रधान लक्ष्मणसिंह वर्मा ने कहा- खाओ पीयो और सो जाओ, अब प्रचार में कौन आयेगा! बेधड़क जी और दादा शिवनारायण ने कहा- सोने नहीं, प्रचार करने आये है। पुराना टीन का पीपा लेकर चैपाल पर चढ़ गए और लगे रुक्के मारने- आओ भाईयो, आर्य समाज का प्रचार होगा। लोग इकट्ठे हो गए, जम कर प्रचार हुआ।


इस लेख की सीमाएँ हैं। वास्तव में आर्यसमाज के भजनोपदेशकों का इतिहास त्याग बलिदान और समर्पण का अप्रतिम इतिहास है। हरयाणा के भजनोपदेशकों में श्री बलबीर सिंह झाभर, पं0 प्रभुदयाल प्रभाकर पौली, महाशय प्यारेलाल भापड़ौदा, पं0 शिवलाल, हरलाल सिंह मंधार, महाशय भोलूराम अलाहर, रामकरण शामलो, रामपत वानप्रस्थी, पं0 शिवकरण जी, महाशय श्रीचन्द मतलौडा, कालूराम कोथ, लालसिंह मिलकपुर, इन्द्रसिंह पेटवाड़, पं0 भूराराम, नत्थूसिंह, नानूराम, रिछपालसिंह, हनुमंतराम, जौहरीसिंह, पं0 भगतराम, वैद्य मंगलदेव गोली आदि आदि ज्ञात-अज्ञात हजारों भजनोपदेशकों का इतिहास लुप्त ही हो रहा है, जिनका समाज के उत्थान में मौलिक योगदान रहा है। इनके विषय में अन्यत्र प्रकाश डालने का प्रयास किया जायेगा। अब तो उन सब ज्ञात अज्ञात नींव के पत्थरों को नमन करते हुए ठाकुर उदयसिंह जी के शब्दों में इस लेख का समापन करते हैं-


शीश पर बिस्तर और बगल में छतरी लगी,
एक हाथ बैग दूजे बालटी संभाली है।
दिन गया धक धक में रात गई बक बक में,
कभी है अपच और कभी पेट खाली है।
जंगल में सलूना और सड़क पे दशहरा मना,
मोटर में होली और रेल में दीवाली है।।
पुत्र मरा सावन में और पत्र मिला फागुन में,
‘ठाकुर’ इन उपदेशकों की दशा भी निराली है।।

संदर्भ ग्रंथ




1- आर्यसमाज का इतिहास सत्यकेतु, 2- आर्य लेखक कोश: डाॅ0 भवानीलाल भारतीय, 3- आर्यसमाज का इतिहास: डाॅ0 धर्मदेव विद्यार्थी, 4- चन्द्रभानु आर्योपदेशक व्यक्तित्व एव कृतित्व, 5- आदर्श भजनमाला: चैधरी ईश्वरसिंह, 6- बस्तीराम सर्वस्व: परममित्र मानव निर्माण संस्थान, 7- शांतिधर्मी मासिक पत्रिका, 8- बेधड़क भजनावली, 9- स्वामी भीष्म अभिनन्दन ग्रंथ