Friday, March 2, 2018

राजा लक्ष्मण दास, जगरदेव दादा और मंदिर !!!



राजा लक्ष्मण दास, जगरदेव दादा और मंदिर !!!

- अरुण लवानिया

काशी हिंदू विश्वविद्धालय के शहर स्थित महेंद्रवी छात्रावास के कार्यालय में राजा लक्ष्मण दास जी ने अपनी कुर्सी पर बैठे जगरदेव दादा को अपने बनाये नक्शे के बगल एक और नक्शा खींचते पाया। पांच मिनट चुपचाप राजा पीछे खड़े उनको देखते रहे।दादा तो नक्शे को बनाने में तल्लीन थे। उन्हें आभास ही नहीं हुआ कि पीछे राजा खड़े हैं। कुछ समय पश्चात राजा ने पीछे से दादा के कंधे पर हाथ रख उनका ध्यान भंग करते हुये पूछा -

" क्या कर रहे हैं जगरदेव दादा ? "

दादा ने पीछे मुड़ कर देखा तो काटो तो खून नहीं। अपने मालिक की कुर्सी पर बैठा पकड़ा गया। बेचारा गरीब हरिजन ! अब तो नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। घर कैसे चलेगा यही सोचता रुंआसा जगरदेव दादा हाथ जोड़कर नीचे फर्श पर बैठ गया।

" मालिक , बहुत गलती हो गयी।माफ करें।आगे से ऐसा कभी नहीं होगा।दया करें।बहुत गरीब परिवार है हमारा।"

" खड़े हो जाइये जगरदेव दादा।"

"नहीं मालिक। हमारी यही जगह है जमीन पर। एक बार गलती माफ कर दें बस।"

" मैं कह रहा हूं खड़े हो जाइये और पास आइये।"

जगरदेव दादा को अब पक्का यकीन हो गया कि मार तो पड़ेगी ही नौकरी भी जायेगी।हाथ जोड़े आंखों में आंसू भरे वो राजा के पास आकर कांपते पैरों से खड़े हो गये। अब मार पड़ी और नौकरी भी गयी। सर नीचे झुकाकर जमीन पर आंखें टेक दीं। लेकिन यह क्या ? उनके कंधे पर राजा लक्ष्मण दास का स्नेह से भरा हाथ टिका और:

"जगरदेव दादा क्या आपको पढ़ने का शौक है?"

" मालिक बहुत गलती हो गयी।आगे से ऐसा नहीं होगा।नौकरी से मत निकालियेगा। परिवार भूख से मर जायेगा।"

" घबड़ाने की कोई बात नहीं है। मैं देख रहा हूं कि आपको पढने की अभिलाषा है। अच्छी बात है। सच-सच बताओ दादा काम सीखना चाहते हो ?

"जी सरकार, चाहता हूं।"

" तो फिर मैं आपको अपने बगल बैठाकर कल से पढ़ाऊंगा कि कैसे नक्शा बनाया जाता है।"

सुनते ही दादा की जान में जान आयी।

जगरदेव दादा काशी हिंदू विश्वविद्धालय से सटे नैपुरा कला गांव के निवासी थे। हरिजन थे।सदा नंगे पैर रहते और बड़ा सा साफा पहनते थे। इन्हें पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने अपने सहायक के रूप में साथ लगा रखा था। जब मालवीय जी ने परिसर के मध्य कुतुब मीनार से भी ऊंचा भव्य विश्वनाथ मंदिर की डिज़ाइन तैयार करने का उत्तरदायित्व इंजीनियर राजा लक्ष्मण दास जी को सौंपा तो उन्हें अपने विश्वस्त सहायक दादा को देते हुये कहा कि जबतक आपका कार्य पूर्ण नहीं हो जाता ये आपके साथ रहकर आपकी सहायता करते रहेंगे। दादा कार्यालय और राजा लक्ष्मण दास जी की निजी जिम्मेदारी संभालते थे। दोपहर भोजन के लिये जब राजा लक्ष्मण दास जाते तो जगरदेव दादा उनकी कुर्सी पर बैठकर बनाये जा रहे नक्शे की डिज़ाइन को समझते हुये अपना अलग नक्शा खींचने के प्रयत्न में लगे रहते थे। यह उनका नित्य का नियम था। राजा के वापस लौटने से पहले उठ जाते थे। उस दिन राजा लक्ष्मण दास तबियत खराब होने के कारण बिना भोजन किये शीघ्र वापस लौटे तो जगरदेव दादा उनकी कुर्सी पर बैठे पकड़े गये।

अगले दिन से राजा ने दादा को डिज़ाइन बनाने की बारीकिया पढ़ानी शुरू कर दीं। दादा अंगूठा छाप लेकिन नैसिर्गिक प्रतिभा के धनी थे।सीखने की लग्न थी और शीघ्र ही वो इस कला में पारंगत हो गये।विश्वनाथ मंदिर के प्रथम दो मंजिलों की डिज़ाइन तैयार कर राजा लक्ष्मण दास वापस लौट गये और स्वयं के पैसे से बनाया अपना निवास स्थल लक्ष्मण दास भवन विश्वविद्धालय को दान भी कर गये।उनके जाने के बाद मालवीय जी.रुड़की इंजीनियरिंग कालेज से पढ़े वीरेंद्र गुप्ता को उनके स्थान पर लाये। जगरदेव दादा की यूनिवर्सिटी वर्क्स डिपार्टमेंट में मालवीय जी ने स्थाई नौकरी भी लगवाई। नौकरी के लिये आवश्यक मेडिकल सर्टिफिकेट भी बनवाये। वीरेंद्र गुप्ता से कहा कि राजा लक्ष्मण दास जी से ये प्रशिक्षित हैं और नक्शा बनाने में ये आपका साथ देंगे।

इस भव्य मंदिर की बाहरी दीवालों पर बनायी गयी समस्त धार्मिक प्रतीक चिंह, कलश और सजावटी आकृतियां जगदरदेव दादा की ही कल्पना और कला की देन हैं। दादा 1974 में सेवानिवृत्त हुये। उनकी उम्र सर्टिफिकेट में बीस साल कम लिखाई गयी थी। जब उनकी मृत्यु हुयी तो उनकी सही उम्र 98 साल थी।

मालवीय जी ने मंदिर की अंदरूनी संगमरमर की दीवालों पर संत रविदास जी , वाल्मीकि जी और दक्षिण के हरिजन संतो की वाणियां भी अंकित करवायीं। मंदिर प्रवेश भी सभी जाति और धर्म वालों के लिये खुला रखा। नीचे दिये गये चित्रों में मालवीय जी की सामाजिक समता मूलक प्रतिबध्दता को समझा जा सकता है।

जो तथाकथित अंबेडकरवादी मंदिर प्रवेश को लेकर दलितों को बरगलाने में लगे रहते हैं उनको यह मंदिर दशकों से चिढ़ा रहा है।

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